संतुष्टि …अंतर्मन की पुष्टि …
लिखते लिखते ऊब गया हूँ,
ना जाने क्यूँ यूं डूब गया ?
चलते चलते रुक गया हूँ,
अपने आप ही झुक गया हूँ ।
लिखने से क्या होगा हासिल,
क्या जाएगी मंज़िल मिल ?
आए सवाल ये रात और दिन,
क्या होगा सपना मुमकिन ?
व्हाट्स ऐप पे वाहवाही पाऊं,
थोड़े में ही मैं इतराऊँ,
मिले दिशा ना, कहाँ मैं जाऊं ?
इससे ही क्या काम चलाऊं ?
काश गुरु कोई मिल जाए,
मुझमें ख़ुदको ही वो पाए,
कण कण में मेरे वो समाए,
भला बुरा मुझको समझाए ।
जीवन भर अहसान रहेगा,
गुरु मेरा अभिमान रहेगा,
मानूंगा वो जो भी कहेगा,
जज़्बा नस नस में बहेगा ।
आंतरिक शांति है वरदान,
भौतिक सुख बस झूठी शान,
तृप्त जो हो जाए मेरा ईमान,
जीवन सार्थक, ना चाहे पहचान ।
आज का युग मग़र कलयुग है,
व्यंग्य की ओर ही बस रुख़ है,
भोग लालसा की भूख है,
साधन ख़ूब, मग़र दुख है ।
इन सबसे जो हो जाए पार,
अंतःकरण में प्यार ही प्यार,
उसको जीने का अधिकार,
वो है धरा पे एक अवतार ।
ख़ुद से पैदा हो प्रोत्साहन,
सबसे बड़ा ये ही धन,
लिखने की ना रुके अगन,
असीमित जुनून, अदम्य लगन ।
लिखने की जब लग जाए भूख,
बेलगाम, वो बिल्कुल अटूट,
स्याही सके वो कभी ना सूख,
ईश से तब होता तार्रुख ।
स्वरचित – अभिनव ✍🏻