|| तुम ही आधार हो ||
तुमसे प्रीत की ये रीत है नयी
पर हौसलों की उड़ान है सधी,
मुख है निशब्द और ह्रदय सरल
पर मन के भाव हैं मेरे बड़े प्रबल |
ये शाख, ये पत्तियां भी विचारती हैं
विशद हैं भाव कितने मेरे जानती हैं
स्वप्न में हो तुम मेरे अब सब जगह
ह्रदय में मेरे बस चुके ये मानती हैं |
कविता की मेरी तुम अब हो विषय
दोहराऊंगा इसे मैं अब हर जगह
“नींद” से अपनी अब तुम उठो ज़रा
ह्रदय के मार्ग पे तुम चलो ज़रा |
कल्पना को मेरी तुम स्वीकार लो
काव्य के मेरे अर्थ को पहचान लो
प्रेम को वाक्य में हैं पिरो रहे
हर शब्द का बस तुम ही आधार हो |