नोटबंदी के बाद से अब विद्वानों को धनीजनों से किनारा कर लेना चाहिए
 विद्वान जन जो बहुत ही पढाई-लिखाई में बहुत ही तेज-तरार हुआ करते थे। वे 1950 से लेकर 1992 तक किसी धनीजन के साथ नहीं उठा-बैठा किया करते थे। तब समाजवाद था, समाजवाद में हर इंसान दूसरे इंसान की तरह ही जीना चाहता था, समानता बहुत थी, अमीर गरीब साथ-साथ बैठा करते थे। लेकिन गरीब लोग अमीरों की आदतें नहीं अपनाते थे, क्योंकि अमीरी तो कईयों की लाशों पर चलकर मसलकर ही हासिल की जाती है ऐसा माना जाता था। फिर भी अमीर गरीब दोनों एक दूसरे की बहुत ृइज्जत किया करते थे। तब क्या था कि विद्वान लोगों की बहुत इज्जत होती थी, विद्वान लोग धनीजन के साथ कम ही बैठते थे। क्योंकि वे जानते थे कि धनीजन के साथ बैठने से बुदि्ध भ्रष्ट हो जाती है। क्योंकि धनीजन की एक बुरी बात होती है कि वह हरेक बात को लाभ-हानि की दृfष्ट से ही देखा करता है, किसको भोजन कराऊँगा तो मुझे लाभ होगा, किसे चाय fपलाऊँगा तो मुझे लाभ होगा, किसकी चापलूसी करूँगा तो लाभ होगा यही सोचता है, किसके साथ समय fबताऊँगा तो उससे पैसा खींच सवूँगा किस मंदिर में जाने से धन आ रहा है, वहीं जाऊँगा जिस मंदिर में जाने से धन लुट रहा है वहाँ नहीं जाऊँगा, यह सब खुरापात उसमें चलता ही रहता है, किससे मेरे बेटे और बेटी की शादी करूँगा तो पैसे की बढोतरी होगी, यही सब सोचता रहता है। जबकि जो विद्वान होता है, वह बहुत ही संस्कारी होता है, लोग उसके चरण छू कर राय लिया करते थे कि हम किस तरह का जीवन जिएँ वह विद्वान जन सभी को समझाता था कि सीमा के हिसाब से पैसा कमाना चाहिए, व्यवहार ठीक करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, बडे-बूढों का सम्मान करना चाहिए और आवश्यकता से अधिक धन आने लगे तो सारा का सारा दान कर देना चाहिए।
लेकिन सबसे बडा विनाश यह हुआ कि 1992 के बाद विद्वान भी धनी जन की संगत में, चपेट में, लोभ में, लालच में आ गया और यहीं से सारे देश का पतन शुरू हो गया। पंfडतों के पास कारें आ गयीं वे राशिफल और वुंडली बताने के लाखों रूपया लेने लग गये। और विद्वान जन उसके बाद ज्ञान हासिल करने के बजाय पैसा कमाने के 99 के पेर में पड गये। और ये 99 का चक्कर ऐसा हो जाता है कि वो कभी 100 नहीं हो पाता है, और सारा जीवन 99 के पेर में चला जाता है, यानी इच्छाएँ बढती ही चली जाती है, जैसे एक जमीन ली तो दस जमीनें लेने की इच्छा हो जाती है, एक घर लिया तो चार घर लेने की इच्छा हो जाती है, उसी तरह से टीवी एक तो बाद में चार, जेवर एक तो बाद में हजार। इस तरह से हो जाता है।
1992 में खुला बाजार जब मनमोहन सिंह की गलत नीति से इस देश में आया तो सभी की बुदि्ध ही पूरी तरह से भ्रष्ट हो गयी, विद्धान लोग भी 99 के पेर में पड गये। क्योंकि तब हरेक घर में सरकारी नौकरी नहीं थी तो लोग प्राइवेट नौकरी करने लगे और उनकी मानसिकता पूरी तरह से भोगविलास, भौतिकवाद और इंसान की इंसानियत से अधिक बाहरी चीजों के लालच में बुरी तरह से पँस गयी। इसका भयंकर नतीजा यह निकला कि मंदिर का पुजारी जो पहले केवल सुखी भवा, स्वस्थ रहो, या दूधों नहाओ पूतों फलों का आशीर्वाद दिया करता था, वह भी खूब पैसा कमाओ, अथाह धन अजित करो, धन धान्य से फलो-पूलों का आशीर्वाद देने लग गया।
साहित्यकार भी पहले जो इंसनियत और आदमियत की बातें किया करते थे। वे भी साहित्य से मिलने वाली ग्रांट की ओर देखने लग गये। पुरस्कारों की ओर ललचाई दृष्टी से देखने लग गये, चारों ओर भोगवाद में साहित्यकारों को बुरी तरह से कुचला गया, कहा गया कि अब इंसानियत की बातें करना फिजूल की बातें हैं। तब साहित्यकार चुप रहने के बजाय कुछ नहीं कर सके, वे कवि सम्मेलनों में नेताओं को मंच पर बुलाकर उनके चरण धोकर उसका जल पीने लग गये। पुरस्कारों की पैरवी करने लगे, धनी लोगों को, वूडमगजों को साहित्यकार लोग मंच देकर उनसे पैसा ऐठने लग गये। और खुद को निष्कलंक बतलाते रहे। हर शहर में साहित्यकार मठाधीश बन गये और पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने के बगैर साहिति्यक पति्रका प्रकाशित करके संपादक के पद पर स्वतह बैठ गये और असभ्य माहौल पैलाकर भारतीय भाषाओं और छोटी पति्रकाओं और साहित्यकारों को तहस नहस करने का अभियान चलाने लगे, मगर ये जो पfब्लक है वो सब जानती है, ये जो पfब्लक है, अजी अंदर क्या है, बाहर क्या ये वो सब जानती है, ये जो पfब्लक है….।
उधर डॉक्टरों को पहले भगवान कहा जाता था। शहर का हर बडा डॉक्टर तब एक या दो सरकारी अस्पतालों में मुफ्त का इलाज करने जाया करता था। वहाँ जाकर वह सात-सात घंटे तक गरीब इंसान का भी हाट का ऑपरेशन किया करता था। और पूटी कौडी नहीं लिया करता था। और गरीबों का इलाज करता था, बाद में वही डॉक्टर अपनी कला को बुरी तरह से बेचने लग गया। वह सरकारी अस्पतालों में जाना अपनी शान के खिलाफ समझने लगा, बडे प्राइवेट अस्पताल में एक या दो घंटे जाने लगा, बेतहाशा फीस लेने लग गया। लोग कितनी कfठनाई से धन कमाकर पैसा देते थे, उन्हें इसकी कोई fचंता नहीं होती थी,वह पूरी तरह से धनाजन में लग गया आज की तारीख में अगर इनकम टैक्स वाले रेड मारेंगे तो एक-एक डॉक्टर पूरी तरह से भ्रष्ट निकलेगा, हम सोच भी नहीं सकते हैं उतनी संपति्त उसके पास से निकलेगी। क्योंकि 1992 से लेकर आठ नवंबर 2016 तक लोगों ने इतना सारा धन कमा लिया जिसकी कोई सीमा नहीं है।
अब 8 नवंबर के बाद सारे भ्रष्ट दरिंदे सकपकाये हुए हैं कि आगे से हम कमाएँगे तो करेंगे भी क्या, क्योंकि चारों ओर से मोदीजी ने हमें इतनी बुरी तरह से घेर लिया है और गले में ईमानदार हो जाने का पंदा डाल दिया है कि जेवर पर उनकी नजर, बैंक पर उनकी नजर, हवाला पर अब उनकी नजर, पनामा पर उनकी नजर, जमीनों पर उनकी नजर लोगों ने मोदी को बुरा भला कहकर अब कुछ भी करना छोड दिया है। और अब ये पैसे के नशे से बाहर आ रहे हैं। मोदीजी का हमें बेहद आभारी होना चाहिए कि ऐसा करके उन्होंने भारत की गरीब जनता पर बहुत बडा एहसान किया है। 1992 के बाद गरीबों को नोंच-नोंचकर खाने का ही दौर चलता ही रहा, वह जब भी गिरकर उठने की कोशिश करता था, उसे फिर से धडाम से गिरा दिया जाता था, और यह सिलसिला 24 साल लगातार चलता ही रहा, चलता ही रहा, 1992 से लेकर 2016 तक हमने पूरी तरह से सभ्य और धनी रहते हुए भी नरक सा जीवन जिया जिसमें शांति क्षण भर को नहीं मिली, लोग बीमारियों से ग्रस्त हो गये। व्यभिचार चरम पर चल पडा। क्योंकि एक भी गरीब आदमी बडी बीमारी में पडकर जब बडे अस्पताल में जा रहा था, तो इलाज में इतना धन लग रहा था कि उसका सारा जीवन ही नष्ट हो जा रहा था, लोग धन-दौलत, जेवर बचत सबकुछ गिरवी रखकर इलाज करवा रहे थे, भारी ब्याज पर पैसा लेकर इलाज करवा रहे थे, मैं कई डॉक्टरों को जानता हूँ जो भारी ब्याज पर छिप छिपकर पैसा चलाया करते थे और गरीबों का खून चूसा करते थे।
आज की तारीख में यह हालत हो गयी है कि बडे-बडे होटलों की नीलामी हो रही है, लोग होटल बेचकर भाग रहे थे, क्योंकि महंँगी शादी करने से लोग डर रहे हैं कि कहीं मोदीजी इनकम टैक्स की रेड करके हमारा सत्यानाश न कर दे। इसलिये लोग बडी होटलों में शादी बुक ही नहीं कर रहे हैं। बडी होटलों के रेस्तराँ की कुसियाँ जो पहले खचाखच भरी रहती थीं, अब तो सभी जगह वीरानी सी छा गयी है। पहले क्या था कि लोग एक दूसरे को लूट-लूटकर धन कमाकर होटलबाजी किया करते थे। लेकिन अब तो लोग 32 रूपये की प्लेन तंदूर नान की रोटी खाने से दूर भाग रहे हैं। जो थाली पहले 400 रूपये की हो गयी थी, अब तो एक सौ रूपये की एक थाली हो गयी है, उसको दो सौ में दो थाली करके प्रचार कर रहे हैं। क्योंकि उनको भी तो जीना है, कुछ न कुछ तो करना है, हमारा तो कहना है कि जो लोग बहुत दाम लगाकर भोजन बेच रहे हैं उनका हम सभी कोदिरस्कार करना चाहिए। पंचरतन होटल में एक सौ साठ की थाली है वह रीजनेबल है, क्योंकि उसमें सूप भी है मीठा भी है, साउथ इंfडयन थाली 90 रूपये है वह रीजनेबल है, बस उससे बढकर लोगों को पैसा देने की ताकत ही नहीं रह गयी है।
पहले के लोगों में एक बहुत ही तगडा संस्कार हुआ करता था। धमयुग पति्रका के संपादक धमवीर भारती जब जवान थे तो साइकिल पर युवा दोस्तों के साथ लदकर जयप्रकाश नारायण से मिलने जाया करते थे। उनसे संस्कारों को ग्रहण किया करते थे, तब जाकर जब संपादक बने तो उनकी पति्रका सभी लोगों में एक बहुत अच्छा संस्कार डाल सकी। इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनी तो अपने काम पर सवोदयी नेता विनोबा भावे से विचार मंँगवाती थीं, कालीचरण गुप्ता राही विनोबा भावे और इंदिरा गांधी के बीच सेतु का काम किया करते थे, राहीजी हैदराबाद के थे लेकिन आज राहीजी के खानदान के लोग उन्हें मामू की बकरी चराने वाला कहते फिरते हैं, जिसका मतलब यह है कि खुद के लिए कुछ नहीं समाज के लिए ही जीवन लुटा दिया। समाज के लिए ही जीना चाहिए, जैसे मोदीजी ने कहा झोला लेकर आये हैं झोला लेकर चले जाएँगे, वही इंसान है वही देवता है, देवताओं ने क्या किया समाज को ही जीवन दे दिया ,अपने लिए तो जानवर जिया करते हैं। कालीचरण गुप्ता राही के बेटे बहू तो नहीं बाकी लोग पैसा कमाने में लबालब डूबे हुए हैं। सो, राहीजी जैसे समfपत लोग अब नहीं रहे जो वेश्याउद्धार का काम भी करते थे, उनको लोग भुला दे चुके हैं उनकी हँसी उडाते हैं, लेकिन हमारी नजर में वे हमेशा एक बहुत ही सज्जन व्यकि्त के रूप में सम्मानित रहेंगे। 1992 के बाद यही हुआ हरेक सम्मानित व्यकि्त को बुरी तरह से अपमानित किया गया। सारा समाज तहस-नहस ही नहीं हुई हजारों सालों की अच्छाई जबरदस्ती दफना दी गयी।
बाद में जाकर देश के सारे समfपत लोगों का भरपूर अपमान हुआ, बाजार में ही नहीं बलि्क घर की चार दीवारी में ही उनकी ईमानदारी का सिला यह मिला कि उनको ठीक से भोजन दवा भी नहीं दी जाने लगी। बेचारे शम के मारे अंदर ही अंदर घुट घुटकर मर गये। क्योंकि 1992 के बाद ऐसा भयंकर समय आ गया कि जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी, और समाज और घर के लोग एकदम दरिंदों की तरह एक दूसरे से बताव करने लग गये थे, बेटे माता fपता के नहीं रह गये थे। लेकिन मोदीजी का यह 8 नवंबर का जो नोटबंदी का प्रहार हुआ कि लोग अब बटर नान खाने के बजाय नमक की सादी रोटी खाने को मजबूर हो गये हैं। और नमक की रोटी बुरी नहीं होती। लोग अब खुशी खुशी जीना सीख गये हैं, महँगाई कम हो रही है, एक लाख महीने के किराये के दुकान-मकान अब 24 हजार में किराये पर जा रहे हैं। पहले किराये की पगडी ही दस लाख थी, अब दो लाख ही हो गयी है। समय बदल रहा है, मोदीजी को अपनी मजबूती और भी बढानी चाहिए। और भी स्क्रू टाइट करना चाहिए। जनता के लिए दोबारा स्वर्णयुग आया है, इसे बनाये रखिये और सभी को क्षमा करने की आदत बढाइये।
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