कविता-बचपन
कल की ही बात थी वो,जब गुड्डे-गुड्डियों का खेल था ।
बस.. वो ही यह दिन था,जिसमे बचपन का मेल था ।।
वो आए,तुम गए,तुम आए,वो गए,फिर से सब आए ।
काश वो घरौंदे बनाने, बचपन वाले दिन फिर आए ।।
वो माँ की गौद मे खेलना ,फिर उठकर भाग जाना ।
वो पापा से छूपकर भागना,साथियों के साथ खेलना।।
वो दादी का पोपला मूंह देखकर वो हंसी फिर आए
काश वो घरौंदे बनाने, बचपन वाले दिन फिर आए ।।
वो मां का नहलाना,कंघी कर कृष्ण-कन्हैया बनाना ।
वो पापा की मार खाना,डर कर रजाई मे छुप जाना ।।
वो दादा का हमे राजा की तरह जगाना फिर से आए।
काश वो घरौंदे बनाने, बचपन वाले दिन फिर आए ।।
वो दादा के कंधे,हाथी की सवारी,फिर गिरा दिए जाना।
वो दादी का परियों की कहानी सुनाकर सुलाए जाना ।।
वो नानी का हमे थाली मे दूध पिलाना फिर से आए ।
काश वो घरौंदे बनाने, बचपन वाले दिन फिर आए ।।
वो घोड़े बेचकर सोना,फिर से रोकर उठना,दूध पीना ।
दादा की गोद मे जाकर फिर सोना,दादा का खिलौना ।।
वो मां का हमें डराकर सुलाने वाले दिन फिर से आए ।
काश वो घरौंदे बनाने, बचपन वाले दिन फिर आए ।।
काश वो घरौंदे बनाने, बचपन वाले दिन फिर आए ।।