कविताख़ास

एक दीया वहां भी – ईश शाह

क्यों घर यूं ही लौटते हो काका
कुछ दीये हम भी ले लेंगे
क्यों खामोश बैठे हो काका
थोड़ा सा बतिया हम भी लेंगे
यूं न हार मानो आप
कला का मोल अनोखा है
जलते दीये कहां बुझते है
यह तो सिर्फ झरोखा है
ऑनलाइन हुआ है सब कुछ
पर इसमें भावना कहां हुई
सिर्फ गमक उठते हैं कुछ घर
पूरे शहर प्रभावना कहां हुई
वक्त आया है सबका
सबको दिवाली माननी है
दंभ मिटे, मिटे असमता
यह बात सबको बतानी है
अम्मा के हाथों के
रंगो की बात निराली है
रंगोली जो बनी है
लगता प्रेम की प्याली है
दीप जले खुशियों का
नया साल भी आना है
छूट गया जो पीछे , छोड़ो
अभी तो आगे जाना है
मैंने सोचा, प्रेम किया
पर तुमको तो कहीं जाना है
शहर, गांव या गली कोई भी
याद आता एक दीवाना है
प्रेम लिखूं तो पूछते है
प्रेम -व्रेम में क्या रखा
प्रेम न हो तो जीवन ऐसा
बिन बाती दीया रखा
तो मानो मेरी एक बात को —
बल्ब लगाना बड़ा
मुश्किल है जहां भी
तुम लगाना अपनी तरफ से
एक दीया वहां भी !

  • ईश शाह
मैं 7 वी कक्षा से कविता लिखता हूँ। मै हिंदी साहित्य से कुछ सिखना चाहता हूँ और इसे कुछ देना चाहता हूँ । ईश शाह बांसवाडा, राजस्थान

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