भगत, राज, सुखदेव … जिस्म अलग, रूह मगर एक ..
तेईस मार्च,
को गिरी थी गाज,
था भगत को खोया,
भस्म हिन्द का ताज ।
एक सच्चा सपूत,
ईश्वर का दूत,
उसकी कुर्बानी,
कोई सके ना भूल ।
था ख़ुद को भूला,
सदा देश ही सूझा,
उस जैसा ना कोई,
बस वतन की पूजा ।
हंसकर था चूमा,
फांसी का झूला,
जब हुआ शहीद,
सूरज भी डूबा ।
फांसी से पहले,
तीनों लोक मिले,
ऐसे थे लिपटे,
जिस्म जैसे जुड़े ।
साथ में थे देव,
राजगुरु सुखदेव,
जन्म चाहे अलग,
अमर पंचतत्व एक ।
ऐसा था साथ,
दे डाली मिसाल,
एक दूजे की ढाल,
साथ हुए कुर्बान ।
नाम भागां वाला,
वो जैसे शिवाला,
निर्णायक मोड़,
बाग जलियांवाला ।
ऐसा था जुनून,
सवार सिर पे ख़ून,
देख लाला जी की हत्या,
प्रण – “बदला ख़ुद” ।
चटा डाली धूल,
बज गया बिगुल,
हुए फिरंगी भौचक्के,
नींदें गई थी उड़ ।
वक़्त बदल रहा था,
दिन दिख सा रहा था,
क्या हुआ ना जाने !
धुंध लग गई छाने ।
गद्दारी बदौलत,
लुटी हिन्द की शोहरत,
अपने गए बिक,
चुकाई देश ने क़ीमत ।
क्रांति की आंधी,
अनुचित मानते थे गांधी,
चाह सकते तो वे,
रोक सकते थे फांसी ।
सज़ा बिन अपराध,
वैसे कानून की बात !
किसकी थी साज़िश ?
किसने की घात ?
फांसी पश्चात,
आए फिरंगी ना बाज़,
किए छिन्न-भिन्न शरीर,
तड़पा रुआंसू आकाश ।
ऐसे बलिदानी,
थी भरी जवानी,
बांधे सिर पे कफ़न,
है नमन पुष्पांजलि ।
स्वरचित – अभिनव ✍🏻