टीस … देशभक्तों को सलाम
एक मगर कुछ शिकवा है,
मेरा जाने किसका है,
हर पल ये कुछ रिसता है…
या फ़िर बोलूं टीस है,
ना चाहत ना रीस है,
तंग कर रही कोई चीज़ है…
ज़हन में चल रही उलझन है,
सोच बहुत ही गहन है,
भटक रहा अब ये मन है…
अंदर कुछ बेचैनी है,
लगता है पुश्तैनी है,
बहती नहीं जो बहनी है…
क्या सिर्फ एका प्रयास है ?
या फिर सारे ख़ास हैं ?
मिले झुले अहसास हैं ।
भगत राजगुरु गर साथ में होते,
सुभाष आज़ाद भी हाथ संजोते,
मिलझुल हंसते मिलझुल रोते…
तब होती ये पूरी जीत,
होती आज़ादी और पुनीत,
तब होती ये आत्मा प्रीत…
तब मैं सोता चैन से,
मोती ना बहते नैन से,
ना लड़ता तब रैन से..
ये देशभक्त भी साथी हकदार,
इनकी कुर्बानी गई ना बेकार,
इनकी अजब ही थी रफ्तार…
इनको भी मैं शीश नवाता,
देश का इनसे गहरा नाता,
इनपे हर जन है इठलाता…
अब हुई मेरी कविता पूरी,
पहले थी ये आधी अधूरी,
इनकी अहमियत बहुत ज़रूरी ।
उभरता कवि आपका “अभी” (अभिनव) ✍