क्यों लगता है हमें कि,
नये साल के सूरज की पहिली किरण,
नई आशा लेकर आती है।
क्या उसकी उर्जा, उष्णता, ओैर उजास,
और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा होती है?
यह हमारा मात्र भ्रम है या,
हमें सूरज से अपेक्षाएं
कुछ ज्यादा होती है।
हम आशान्वित होते है कि, शायद
नये साल में कुछ कम हो सकें,
कन्या भूण हत्या , बालात्कार
अपराध, बालश्रम, और भ्रष्टाचार,
आते आते नये साल का अंत,
हम हो जाते हैं निराश औेर उदास
फिर जो होने लगते है,
नये साल के सूरज की आस,
पीढियां दर पीढियां गुजर गई
इसी आशा में,
आखिर कब तक चलता रहेगा
यह विश्वास विहीन
अंतहीन सिलसिला