स्त्रियां – कविता – वन्दना जैन

स्त्रियां
जलप्रपात सी बजती छन-छन 
उछलती मचलती सरस सी जलधार 
सहज ,शीतल,सफ़ेद मोतियों का कंठ हार 
 
प्रेम में मधुछन्द सी गूंजती 
कभी भय लिप्त हो आँखें मूंदती 
मानसिक उद्वेग को सागर सा समेटती 
 
स्वयं की लिखी अनबुझ पहेली सी 
व्यक्त होती अव्यक्त सुन्दर लिपि सी 
भ्रान्ति में जीकर कांति से उद्दीप्त  
 
क्रांति को कांख में दबाए 
मेघों को दामिनी बन उलाहना देती 
चमकती-दमकती,फिर छुप जाती 
 
घर्षण से पिघल कर कपोलों पर फिसलती 
मन के उद्वेगों को जकड कर 
योद्धा बन मुस्कुराती 
 
शब्दों को मौन की  नैया में बैठा कर 
आँखों के कोरों तक विदा कर  
जीत सहेज कर लौट आती है 
 
स्त्रियां कितना स्वयं को छिपाती हैं 
विस्तृत होकर भी तिरस्कृत है 
चमत्कृत होकर भी अतृप्त रह जाती हैं  

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