शर्मसार हाथरस …
काका हाथरसी,
आज बेहद दुखी,
जब होगा सुना,
है दुष्कर्म हुआ ।
रोयी होगी रूह,
बेटी बेआबरू,
छलनी कर डाला,
जीते जी मारा ।
पावन हाथरस,
शर्मसार बेबस,
ऑंखें झुकीं,
साँसें रुकीं ।
रौंगटे हुए खड़े,
कांप गई नसें,
पाप खुलेआम,
पूरा शहर बदनाम ।
दिया फ़ूल रौंद,
चीलों का झुंड,
होगी झपटमारी,
वो एक बेचारी ।
ना होगा बख़्शा,
ये कैसी परीक्षा !
हँस रही दरिंदगी,
लाचार है जिंदगी ।
पशुओं को पिछाड़ा,
छाया अंधियारा,
ये कैसी होड़ !
बस हवस का ज़ोर ।
इंसानियत लुप्त,
दुष्कृत्य गुप्त,
हों बलात्कार,
क्यूँ ना पलटवार ?
क्या करना सिद्ध ?
मर्दानगी साबित ?
कायराना हरकत,
पार सारी हद ।
ना डरें भेड़िये,
मन माफ़िक छेड़िये,
रक्षक की चुप्पी,
चूड़ियां क्या पहनी ?
कितना है सहना ?
कब तक चुप रहना ?
भर चुका घड़ा,
क्षमता ना ज़रा ।
जल्द आए कानून,
सख़्ती से सुकून,
अनिष्ट करने से पहले,
पापी लाख बार सोचे ।
दुराचारी करे संताप,
भोगे वो दुष्परिणाम,
नौबत ना लाओ ऐसी,
कि उपजे रानी झांसी ।
स्वरचित – अभिनव ✍