पिछले दिनों हिन्दी साहित्य में अपनी लेखकीय जीवटता, उल्लास और जिजीविषा के लिये ख्यात कृष्णा सोबती नहीं रहीं।
कृष्णा जी एक पूरी परम्परा का विस्तार थी जो समय के साथ विभिन्न पात्रों, रंगों और घटनाओं में घटती गई। कृष्णा जी के ही शब्दों में , जो उन्होंने शब्दों के आलोक में समय के रंग से ेलेख में लिखा था। समय ही वह रंग है जो अनेक- अनेक रंगों में विभाजित होता हैं, गहरे, हल्के और चमकीले रंगों में स्वॅय शब्द उन्हें अपने आलोक में स्थित करते है। बरखा में धूप की गरमाहट में देह की आहट में और आत्मा के विराट में। जो पठन, पाठन प्रक्रिया द्वारा एक बार फिर से एक हो जाता है।
कृष्णा जी एक वक्त,एक खतरा, एक तुर्शी, एक संवेदना, एक जिंदगी। उनके बारे में लिखना महज लिखना नहीं है, एक जिंदगी और उसकी तमाम हरकतों को पोर पोर से रचना में उतारना है। जैसे एक मैसम से गुजरकर अलग होना – कुछ इस तरह का एक जीवंत सिलसिला उनक ेलेखन में था।
कृष्णाजी के शब्दों में – ‘‘ इस लोक में रहने वाले हर इंसान की तरह मैं भी हर दिन धरती और आकाश के जीती हूॅ। सूरज और चॉद को जीती हूॅ। अपने शहर की सडकों को, चोराहों को पैदल पार पथों को । पेडों के झुरमटों को चैराहों की बत्तियों को , कतारों को , पुलों के विस्तारों को ,। मैं अपने बहाने दूसरों के वक्त को जीती हॅॅूॅॅ। दूसरों के लिये अपने वक्त के जीती हूॅ। मेरे पास एक अपना बनाया हुआ पुल है।जब चाहूॅ उसके आरपार हो जाउॅ। वही मुझे दूसरों की बस्तियों को और वहॉ रहने वाली दूसरी हस्तियों से जोडता है। मुझे मेरे ‘मैं’ से लगाव है लेकिन, दूसरों की कीमत पर नहीं। मुझे दूसरों का अहम् स्वीकार है, पर मेरी अपनी कीमत पर नहीं।
रातों में , मैं ज्यादा चुस्त- दुरुस्त होती हूॅ। दिन से कहीं ज्यादा उर्जा समेटती हूॅ। सोच विचार में ंदिन से बिल्कुल अलग! रात का रहस्यमय शोर – हल्की धीमी अवाजों का मौन एकांत, उन्हीं में से उभरते चले आते हैं शब्दों के राग, लय, ताल, और अर्थ । जो जीती हूॅ , वही लिखती हूॅ।
श्री नामवर सिंह के शब्दों में ,मेरे सामने वों ‘जिन्दगीनामा’ की लेखिका के ेरुप में सबसे पहले आती हैं।और ‘जिन्दगीनामा’ जहॉ खत्म होता है वो एक तरह से उनका अपना हल्फियाना बयान भी है।गुरु साहब का फारसी का एक शेर उन्होने कहा कि, ‘‘ जब सब रास्ते बंद हो चुके हों तो जुल्म के खिलाफ तलवार उठाना जायज है। कृष्णा जी की तलवार उनकी कलम थी। कृष्णा जी कभी हाथ से नहीं लिखती, उनके शब्दों को देखकर लगता है कि, जैसे उन शब्दों को उसी तरह जीती रही है। जैसे वे अपनी जिदगी जीती रही है। एक- एक शब्द नापतोल के आता है और बोलियों से शब्द अपने आप इस तरह आते है, जिसे वे बुलाती नहीं हैं , लेकिन जब आते है तो वे उन्हें रोकती भी नहीं है।
क्ृष्णा जी ने अपनी जिन्दा भाषा के द्वारा जिन्दगी की हकीकत को, सच्चाई को संभव बनाया है। जब किसी लेखक के पास एसी कलम हो तो हिन्दी राजभाषा, पण्डितों की भाषा नहीं, बल्कि जिन्दा इंसानों की जवाब देने का अहसास कराती है।
उनका नाम आते ही उनकी कृतियों की कतार उभर कर सामने आ जाती है। ‘ डार से बिछुडी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, हम हशमत, बादलोंकेघेरे ,ए लडकी, दिलो दानिश, और उनकी संकलित रचनाओं की कृति ‘ सोबती एक सोहबत’
कृष्णा जी हिन्दी ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय साहित्य की सक्रिय और मूर्धन्य कथाकार ,थीं। वे अनुभव और संबंधों के आध्यात्म,परम्परा और सभ्यता की कथाकार थीं। उनके यहॉ एक पूरा भू-भाग,एक पूरा जनपद, एक सभ्यता बोलती है। उनके यहॉ संबंधों का अद्भुद घमासान है। अपनी रचनाओं में कृष्णा जी जिस तरह का परिवेश लेती थीं,उसकी भाषा में ेंएकदम परिवर्तन होता था। वे भाषा और परिवेश के भीतर एक अद्भुद सा संतुलन कायम करती थी।
किसी युग और किसी भी भाषा में एक- दो लेखक ही ेऐसे होते है जिनकी रचनाएं साहित्य और समाज में ‘घटना’ की तरह प्रकट होती है। पिछले तीन चार दशकों में हिन्दी साहित्य के ऐसे नामों में कृष्णा सोबती सहज ही याद की जाती है। ‘डार से बिछुडी’ और ‘ बादलों के घेरे’ कथा जगत की उसी तरह बडी घटनाएं थीं, जिस तरह 1991 में ‘ ए लडकी’ जो एक अद्वितीय, मार्मिक और कालजयी कृति के रुप में चर्चा के केन्द्र में बनी रही है।
इन चार दशकों में ‘ मित्रो मरजानी’ ‘ यारों के यार’ जिन्दगीनामा’ और ‘हम हशमत’ने जो रचनात्मक उत्तेजना, आलोकात्मक और सामाजिक नैतिक बहसें पैदा की है, उनकी अनुगॅूज अनवरत् है।
कृष्णा सोबती के बारे में यह तथ्य रेखांकित करना जरुरी है कि, वे बजात लेखक सबके सामने है। आधुनिक भारतीय समाज में स्त्री चेतना की प्रखरतम प्रवक्ता का संघर्ष निस्ंसदेह दोहरा रहा है। अपने असंख्य पात्रों को ‘ठोस’ और विश्वयनीय भाषा देते हुये वे उन्हीं की बोली- बानी में अक्सर ऐसे आयाम देती है जो एक गहरी काव्यात्मक संवेदना के बिना संभव नहीं होता।
94 वर्षीय युवा मानसिकता की इस श्रेष्ठतम लेखिका, कथाकार, कलाकार को गत वर्ष ज्ञानपीठ पुरुस्कार दिया गया जिसे लेने के लिये वे अपनी अस्वस्था के कारण नहीं पहूॅच सकी। हिन्दी साहित्य की इस मूर्धन्य साहित्यकार को इतने विलंब से ज्ञानपीठ पुरुस्कार दिया जाना , प्रश्न चिन्ह उपस्थित करता है कि, इस संस्थान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। बहरहाल हिन्दी साहित्य ने श्रेष्ठतम साहित्यकार को खोया है। जिसकी पूर्ति हो पाना असंभव है।
एक विनम्र शब्दांजलि।
Image courtesy: Payasam (Mukul Dube) [CC BY-SA 4.0], from Wikimedia Commons