रवि
शब्दों से रचा हुआ खेल कभी,
कहाँ किसिको समझ में आया हैं,
दूर से सब देख रहा वो,
पर कभी क्या समझाने आया हैं?
मन से विचलित होकर वो भी,
कहीं अपनी काया काली न कर जाए,
देख रहा है वो तो कलयुग,
कहीं इसका दर्शक न बन जाए।
डर लग रहा बस इसी बात का,
कहीं वो हमसे दूर न चला जाए,
अगर दूर हो गया तो,क्या पता?
हम भी कहीं गुम न हों जाए।