|| नारी तू भव की आधारशिला ||
शोभा कि नदी, सगुणों से सजी
प्रेम-करुण की तू सीमा,
स्तुति तेरी किन शब्दों में
जग में न तेरी कोई उपमा ||
दर्पण सा मन, निरूपण-निरूपण
शामक भी, हर किरदार में तू,
नारी तू भव की आधारशिला
दूजी न अनुपम रचना बस तू ||
ओजस्वी, पर बंधी हुई है
कर्म-वचन की रेखाओं में,
प्रकृति का तू शगुन है मानों
फिर क्यों जीवन तेरा पहरों में ||
हर बंधन की है डोर बंधी
तू मोम बनी पर संताप नहीं,
कर आशाओं का श्रींगार सभी की
फिर सीचे खुशियाँ बन नदी-नदी ||
संघर्षों के पुल बहुत बंधे
फिर क्यों पग-पग करना तुझको तय,
निर्जल होते पीड़ा के अम्बर
रहता क्यों मन के संदूकों में भय ||
अधिकारों पे वो प्रश्न चिन्ह
बन वर्षा अब धोने होंगे,
मुक्ति के सन्देश पत्र
अब खुद तुझको लिखने होंगे ||