नारी तू भव की आधारशिला – कविता

|| नारी तू भव की आधारशिला ||

शोभा कि नदी, सगुणों से सजी

प्रेम-करुण की तू सीमा,

स्तुति तेरी किन शब्दों में

जग में न तेरी कोई उपमा ||

दर्पण सा मन, निरूपण-निरूपण

शामक भी, हर किरदार में तू,

नारी तू भव की आधारशिला

दूजी न अनुपम रचना बस तू ||

ओजस्वी, पर बंधी हुई है

कर्म-वचन की रेखाओं में,

प्रकृति का तू शगुन है मानों

फिर क्यों जीवन तेरा पहरों में ||

हर बंधन की है डोर बंधी

तू मोम  बनी पर संताप नहीं,  

कर आशाओं का श्रींगार सभी की

फिर सीचे खुशियाँ बन नदी-नदी ||

संघर्षों के पुल बहुत बंधे

फिर क्यों पग-पग करना तुझको तय,

निर्जल होते पीड़ा के अम्बर

रहता क्यों मन के संदूकों में भय ||

अधिकारों पे वो प्रश्न चिन्ह

बन वर्षा अब धोने होंगे,

मुक्ति के सन्देश पत्र

अब खुद तुझको लिखने होंगे ||

कविता