मेरी नहीं बनती…
मेरी नहीं बनती,
ना भाई से, ना बाप से,
ना तुम से, ना आप से,,
ना भाभी से, ना माँ से,
ना “ना” से, ना हाँ से,,
ना फूफ़ा से, ना बूआ से,
ना अनिष्ट से, ना दुआ से,,
ना मौसा से, ना मासी से,
ना सौ से, ना नवासी से,,
ना साली से, ना बीवी से,
ना फ़ासले से, ना करीबी से,,
ना बेटे से, ना ससुर से,
ना लय से, ना सुर से,,
ना साले से, ना सांडू से,
ना अमन से, ना परमाणू से,,
ना दुश्मन से, ना मित्र से,
ना मन से, ना चरित्र से,,
मेरी नहीं बनती,
ना किसी से, ना सब से,,
ना तब से, ना अब से,,,
क्यूँ नहीं मेरी बनती किसी से ?
अकेलापन क्यों मेरे ही हिस्से ?
क्यूँ विचार का होता मतभेद ?
क्यों मुझपर जताया जाता खेद ?
क्यूँ होती पग पग पर कलह ?
क्यूं इसकी बजाए ना होए सुलह ?
जिससे भी बांटे दिल के हाल,
मुझपर ही उठ खड़े हुए सवाल !
जिसको भी लगाया मैंने गले,
वे छोड़ मुझे कहीं और चले,,
कुछ तो है कहीं कमी,
हरपल जो रहती तनातनी,,
सदा है रहती मुझमें ग्लानि,
कब कहां किसकी मानहानि ?
गिनवाए जाते हैं मुझमें दोष,
सारे नहीं, इसका अफ़सोस,,
लेक्चर, उपदेश व खिट-खिट,
टोकाटाकी हर एक चीज़,,
आलसी, झगड़ालू, बदतमीज़,
नोटंकी, चालू, हूँ मैं नीच,,
करूं विश्वासघात, हूँ बेवफा,
देखूँ बस नुकसान नफ़ा,,
छोटी बड़ी सब बातें पकड़ता,
आगे की जगह पीछे को बढ़ता,,
नकारात्मक, हठी, ईर्ष्यालू, उबाऊ,
ना जाने क्या क्या कहलाया जाऊं,,
स्वार्थी, कपटी, धूर्त, बेईमान,
अविकसित, आत्मकेंद्रित व अनजान,,
काम से डरूं व देता टाल,
कहूँ “करो”, चाहे ना दूं मिसाल,,
लाखों कमियाँ निकाली जातीं,
मेरी संगत ना किसीको भाती,,
मुझको अपनाने की बजाए,
दी जाती आत्ममंथन की राय !
मेरी नहीं एक भी है चलती,
अंदर सदैव ये बात है खलती,,
बातें मेरी ली जातीं उल्टी,
हर बात में मेरी ही ग़लती ।
बोलूं कुछ, लिया जाता कुछ,
कोशिश कि साबित मैं हूँ तुच्छ ।
रोऊँ तो कहलाता कमज़ोर,
कितना सहूँ मैं, कितना और ?
क्यूँ मुझसे हैं सब परेशान ?
उल्टा मुझपर की अहसान !
क्या दे डाली ज़्यादा ढील,
ना कोई हैसियत, हुआ फ़क़ीर !
निंदा उसकी, जिसकी कोई इज़्ज़त,
ये सुन टूटता हूँ मैं अक्सर,,
क्या करूं, मैं क्या नहीं ?
क्या गलत, क्या है सही ?
सोचने समझने की शक्ति ख़त्म,
पागल बन ख़ुदको दूं मैं ज़ख़्म,,
माफ़ी देना भी है चुनौती,
हर एक के बस की ये बात ना होती,,
क्या खुल सकती कोई है राह ?
क्या इस मर्ज़ की कोई दवा ?
काश कि मिल जाए कोई हल !
मिले निजात, गहरा दलदल ।
हर समय ख़ुद से अनेकों प्रश्न,
दीमक बन करूं ख़ुद को भस्म,,
अंदर अंदर मैं पी रहा,
घुट घुटकर हूँ जी रहा,,
समझ ना आए क्यूँ मेरी भाषा ?
बिना बात के बने तमाशा,,
मेरा ना होना – सबसे बेहतर,
जीने से अच्छा, जाऊं मैं मर,,
मानुष जन्म मुश्किल से मिलता,
इसे भोगता केवल फ़रिश्ता,,
मगर करूं क्या, हूँ मजबूर,
ख़ुद से बहुत खड़ा हूँ दूर,,
सबकी नज़रों में गिरा पड़ा,
मुझसे खिन्न, है छोटा बड़ा ।
ना कोई कदर, ना है अहमियत,
ना कोई ओहदा, ना रौब, ना कद ।