मेरा कीमती उपहार

मेरा कीमती उपहार ….

हाय ये कैसा भौतिकवादी युग !
भोग, लालसा, धन की बस भूख,
क्या चाहिए, कुछ पता नहीं,
सबकुछ सम्मुख, फ़िर भी दुख ।

केवल दिखावे की है होड़,
दौड़, दौड़, बस अंधी दौड़,
रिश्ते ताक रहें हैं मुँह,
अपने दिए अब पीछे छोड़ ।

कुछ ओर ही चाहे मेरा मन,
ना वैर द्वेष, ना दोगलापन,
धैर्य, विवेक कीमती उपहार,
सब्र, हर्ष से आवे आनंद ।

विकास की बदल गई परिभाषा,
विषयी विलास जग को है लुभाता,
चाहे तंज कसे कोई मुझपर,
सादगी ही मेरा नज़राना ।

अभिनव कुमार ✍🏻

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