कविता -मै लक्ष्मी दो आँगन की
बेटी बन आई हूं मै जिस आशियाने के आँगन में ।
बसेरा होगा कल किसी और घर के आँगन में ।।
क्यों चलाई ये रीत,खुदा तेरे इन साहसी बन्दों ने ।
आज़ नहीं तो कल पराई कर दी तेरे अदीबों ने ।।
जन्म हूआ तब, ना बंटी बधाई उस आंगन में ।
बसेरा होगा कल किसी और घर के आँगन में ।।
जन्म दिया पाल-पोसकर जिसने इतना बड़ा किया ।
वक्त पाकर उन्हीं हाथो ने आज मुझे विदा किया ।।
होकर विदा बहू कहलाऊं ससूराल के आंगन में ।
बसेरा होगा कल किसी और घर के आँगन में ।।
टूट कर बिखर जाते है हम बेटियों के सारे सपने ।
जो जगाते,सोते,चलते संजोए थे हमने बचपन मे ।।
कल लक्ष्मी कहलाऊंगी दूसरे घर के आंगन में ।
बसेरा होगा कल किसी और घर के आँगन में ।।
अज़य क्यों ये रिश्ते इतने अजीबो-गरीब होते हैं ?
बेटी कह क्यों किसी और के हवाले कर देते हैं ?
रो-रोकर बेहाल हुई है ये बेटी,अपने ही आंगन में ।
बसेरा होगा कल किसी और घर के आँगन में ।।