मंजिल – कविता – ईश शाह

ए मुसाफ़िर थक गया है तो थोड़ा आराम कर ले,
फिर उठ और अपनी मंजिल अपने नाम कर ले ।

इतना मत भाग
थोड़ा ठहराव कर ले,
सब से हो गई हो तो
अब खुद से बात कर ले ।

दिन तो बित ही गया
सरगर्मी सी रात कर ले,
जो चेहरे पर हंसी रखे
उन शब्दों को साथ कर ले ।

पेड़ के नीचे बैठ और
शरीर में छांह भर ले,
वहां पहुंचना है ,ऐसी
खुद से चाह कर ले ।

उससे मोहब्बत है तो
यह काम कर ले,
उसकी याद में सुबह
को शाम कर ले ।

ना मिले तो अपने
आँसुओ को जाम कर ले
भुल जा सब कुछ
खुद के संग जाम भर ले ।

थोड़ी ही सही
किसी से फरियाद कर ले,
अगर ना भुल पाए
उसे तो याद कर ले ।

उसे याद कर कर के
दिल को आबाद कर ले,
इन्हीं  चंद पलों के लिए
खुद को बर्बाद कर ले ।

सुन, खुशी का कहीं            
और से आयात कर ले ,
इस वजह की वजह से
खुद पर इल्ज़ामात कर ले ।

यह पढ लिया हो तो
मुझे भी याद कर ले,
हकीकत में ना सही
ख़्वाबों में साथ कर ले ।

ए मुसाफ़िर अब सुन
यह काम कर ले ,
मैं मंजिल हूँ !
मुझे अपने नाम कर ले ।

poemकविताज़िन्दगी