मैं सही या ग़लत ?

मैं सही या ग़लत ?

मैं ग़लत, मैं ग़लत,
मैं ग़लत, मैं ही ग़लत ।

कहां करूं बोलो दस्तख़त !
अब पार हुई है हर हद ।

कल तक थी तुम्हें मेरी लत,
आज हूँ ख़ामख़ा कमबख़्त ।

मैं हूँ झूठ, तुम ही हो सच,
नहीं चाहता मैं जाना बच ।

तुम थे ढाल, तुम मेरे कवच,
अब गया है कोहराम मच ।

व्यथित बहुत हो रहा मन,
ख़ुद से सवाल और चिंतन ।

बद नहीं, बदनाम बन,
दिल बोले ‘कुछ आगे चल’ ।

उम्मीद काश कि सुधरे कल,
घना हो रहा पर गुंजल ।

शायद नहीं मिलेगा हल,
खोज डाला पाताल तक ।

ग़लती नहीं, पर फ़िर भी शक,
थोड़ा सा तो ऐतबार कर ।

उपजाऊ धरा हुई बंजर,
जीते जी मैं रहा हूँ मर ।

झगड़े बहुत गए हैं बड़,
शायद पक्की ना थी जड़ ।

कौन जाने रहा अकड़ !
हर बात जा रही यहां पकड़ ।

कुछ तो पक्की है गड़बड़,
सावन में आया पतझड़ ।

उलझन अपने चर्म पर,
शंका, चिंता और लगे डर । ✍🏻

कविता