माँ – कविता – वंदना जैन

“माँ”
 
मैं हूँ हिस्सा तुम्हारा और रहूंगी सदा छाया तुम्हारी  
आज दूर हूँ तुमसे पर हर पल मन में है छवि तुम्हारी                  
 
अपनी मुस्कानों की तुमने सदा की मुझ पर स्नेह वर्षा 
स्वयं को रखा पीछे और आगे रही ढाल तुम्हारी 
 
अपना निवाला छोड़ा मेरे मन को पूरा भरने के लिए, 
रात-दिन जागी हो मेरे लिए संग रही प्रार्थना तुम्हारी   
 
अपनी खुशियां कम करके पैसे तुम बचाती थी 
अनिच्छा का ढोंग करके देखी थी आँखें  विवश तुम्हारी  
 
उदास होती थी जब भी मैं,तुम विचलित हो जाती थीं  
पूछती थी सारी मन की बातें और ढांढस बंधाती थीं  
 
हर कठिनाई,हर धूप से तेरे आँचल ने मुझे बचाया था 
कष्ट में सहमी,सुख में आँखें याद है कितनी छलकती थी 
 
जब बात न मानने पर तुम कितना डांटा करती थी 
चूडियों को खनकाकर क्रोध के साथ चेताती थी
 
तुम जान लेती थी पसंद-नापसंद को बिन कहे ही 
फिर बनाने में मेरे लिए वही पकवान  तन्मयता से जुट जाती थी 
 
सुबह जाग कर जल्दी-जल्दी वो तुम्हारा खाने का डब्बा बनाना 
जादू का बक्सा लगता था स्वाद जब-जब मैं उसका चखती थी
 
मन में जीने का हौंसला भर कर जीना तुमने सिखाया था 
असत्य के आगे न झुकना सीख याद है अब तक तुम्हारी 
                                                
प्रेम,ममता,दृढ़ता,साहस,सहनशीलता कितने नाम दूँ 
मेरे ह्रदय में शब्द नहीं,ईश्वर से करूँ तुलना तुम्हारी 
 
बनना चाहती हूँ फिर से बच्ची छुप कर तेरे आँचल में 
सो जाऊं मीठी नींद फिर से मिल जाए मुझे वही गोद तुम्हारी 

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