क्या करूं, क्या ना करूं ?

क्या करूं, क्या ना करूं ?

मैं हूं मजबूर,

हूं खुशी से दूर,

लगी किसकी नज़र ?

मेरा क्या कसूर ? ४

हूं बिल्कुल बेबस,

ना सकता हंस,

फैंका किसने जाल ?

मैं गया हूं फंस । ८

बीच में हूं लटका,

नज़रों में खटका,

कुश्ती में हारा,

मुझको है पटका । १२

क्या मेरा दोष ?

ओझल सब जोश,

जो था मदहोश,

मुझमें अब दोष । १६

बेवफ़ा ना था मैं,

वफा कर ना सका मैं,

हुई बस ये गलती,

गुम था सिर्फ़ अपने में । २०

अब रहा हूं भुगत,

ख़ुद से हुई नफ़रत,

ग्लानि में रहता हरपल,

जैसे रहा हो कोई भटक । २४

ना बिल्कुल इज्ज़त,

बिन बात की जिल्लत,

क्या पाप हो गया ?

बड़ी ज़्यादा कीमत । २८

माना कच्ची नींव,

ना ली दी सीख,

अक्सर रोता हूं,

कोई सुने ना चीख । ३२

रोऊं तो कमज़ोर,

हुक्म – मचे ना शोर,

ना जिऊं ना मरूं,

ये कैसा दौर ? ३६

रिश्ते हुए गुंजल,

बिखरा गंगाजल,

कोशिश सुलझाऊं,

गए और उलझ ! ४०

जज़्बात हैं पत्थर,

मतलब ही अक़्सर,

कैसा धर्म संकट !

ये मेरा ही घर ? ४४

परवाह ना बिल्कुल,

खौल रहा है खून,

क्या प्रचुर दी ढील ?

शीशे पर धूल । ४८

किस बात की अनबन ?

बिगड़ा है संतुलन,

संतोष का है धन,

फ़िर भी हूं मैं सन्न । ५२

अपनी कमी खोजूं,

सदा चिंतन सोचूं,

ना हल कोई सूझे,

हो कुंठित नोचूं । ५६

मानूं मैं गलती,

ज़िद छोडूं जल्दी,

ना हठी ना अड़ियल,

बात फ़िर भी बिगड़ती । ६०

हूं धोंस मैं सहता,

फ़िर भी चुप रहता,

अपमानित फ़िर भी,

बुरा बनूं, जो कहता । ६४

क्या शराफ़त गाली ?

क्यों ना मनमानी ?

दो हाथ से ताली,

ना दोषी मैं ख़ाली ! ६८

ना की टोका टाकी,

ना रोब ना खाकी,

उठा नाजायज फायदा,

कोई कसर है बाक़ी ? ७२

ख़ुद में ना झांका,

एक राग अलापा,

नज़रों में गिराया,

कच्चा किया धागा । ७६

मुझपर ही शक,

लगे बेझिझक,

मैं फ़िर भी मौन,

चुप्पी भी नमक । ८०

होता हूं नज़रअंदाज,

क्या रस्मो-रिवाज़ ?

मैं ना धोखेबाज,

गिरती पर गाज । ८४

क्यो जमाई ना धाक ?

जीवित पर ख़ाक,

बस त्रुटि है इतनी,

मैं ना बेबाक । ८८

हूं भिड़ ना पाता,

वैर से घबराता,

हूं दिल में रखता,

मैं हूं शर्माता । ९२

बस काम के नाते !

बिन दिन, ये रातें,

दूं अपना हाथ,

बदले में लातें । ९६

मैं बहुत हूं कुंठित,

ना हार, ना ही जीत,

मुझसे सिर्फ़ दिक्कत !

जो करूं, वो विपरीत । १००

सिर्फ़ मैं ही बुरा !

ऐसा क्या करा ?

हो सबसे भूल चूक,

मैं क्यों अधमरा ? १०४

मैं लूं पश्चाताप,

चौड़े हों आप,

ये कैसा न्याय ?

मैंने किए क्या पाप ? १०८

सारी मुझसे ही शिकायत,

झांकले ख़ुद भी अपना आँचल,

पता चल जाएगा,

कौन पार करे हद ! ११२

कहते मुझे स्वार्थी,

मेरे बंधू साथी,

समझे वे ना मुझको,

मैं हूं शुभाकांक्षी । ११६

मैं भी दोष का पुतला,

तथ्य ना जाए झुठला,

ना मद ना अहम है,

त्रुटि मानूं मैं खुल्ला । १२०

सोचा उनका भी नजरिया,

दिखीं मुश्किलें व दरिया,

की हिम्मत, आगे बड़ा,

फ़िर भी कहें भेड़िया । १२४

कोशिश करूं गलतफहमियां दूर,

माहौल हो बढ़िया, ख़त्म हो युद्ध,

उल्टा कोतवाल को पड़े है डांट,

मैं ही मगर कहलाऊँ मगरूर । १२८

असमंजस में हूं,

क्या करूं, क्या ना करूं ?

दोनों तरफ़ मिलेंगे दुर्वचन,

चक्रव्यूह में है अभिमन्यु । १३२

कहता कुछ, वे सुनते कुछ,

क्या मैं समूचा दोषी सचमुच ?

अतः करण हो जाता है शून्य,

मेरी वजह से क्या सब कुछ ? १३६

किससे करूं अभिव्यक्त ये व्यथा ?

किसके साथ करूं दिल मैं हल्का ?

फूंककर हर कदम है ये रखना,

तमाशबीन बहुत, कम बची मनुष्यता । १४०

मिल जाए काश मुझे आंतरिक शक्ति,

हो जाऊं लीन, करूं ईश की भक्ति,

निकलेगा हल फ़िर यकीनन,

लुप्त होगी कुंठा, अवसाद व विरक्ति । १४४

स्वरचित – अभिनव ✍🏻

कविता
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