“कर्तव्य परायणता” – आदित्य शर्मा

“कर्तव्य परायणता”

आज सुनाता हूं मैं राजधर्म का आंखों देखा किस्सा,
जिसमें कृष्ण, राम नहीं बल्कि मनुष्य का था अहम हिस्सा।
वह कोई अष्टभुजा धारी नहीं ,ना ही कोई महान उद्योगी है,
वह तो गेरुआ रंग धारी, कहलाता योगी है।।

मुझे कल्पना कर ही आश्चर्य होता है……….

सोचो, कितना भाव पूर्ण दृश्य होगा ,
पिता अंतिम सांसे गिन रहा और
बेटा देश के लिए कागजों में उलझ रहा होगा।

क्या उस पुत्र का हृदय आहत नहीं हुआ होगा,
पिता की खबर सुन वह उठ भी ना सका होगा।
किंतु………
राजधर्म का पालन कर वह उसी कुर्सी पर बैठा रहा होगा,
और केवल नम आंखों से पिता को श्रद्धांजलि देता रहा होगा।।

पिता ने आस-पास जरूर देखा होगा,
पुत्र को खड़ा न देख अवश्य निराश हुए होंगे
मगर……….
बेटा देश की सेवा कर रहा है,वह समझ चुके होंगे।

क्या, उसे रघुकुल रीत या पिता की सीख ने रोक दिया था??
जो वह देशहित के लिए अपना कर्तव्य समझ गया ,अभिनय समझ गया था।

निराश वह बेटा भी हुआ होगा ,
आसमान उस पर भी टूट पड़ा होगा!
परंतु………..
एक प्रश्न का उत्तर वह खुद भी ना दे सका,
क्यूं अपने जन्मदाता को ,मुखाग्नि भी ना दे सका?

फक्र है मुझे मेरा प्रदेश उन सुरक्षित कंधों पर है,
जिसके लिए पुत्रधर्म से पहले राजधर्म सरआंखों पर है।।

कभी कभी मेरे मनो- मस्तिष्क में प्रश्न भी उठ जाता है,
क्या राजधर्म के अंतर्गत परिवार को “कुछ नहीं” समझा जाता है ??
फिर स्मरण हो आता है…………..
देश को परिवार समझना ही तो राजधर्म कहलाता है।।

कविता
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