‘‘ कला’’ में प्रतिबिंबित होती , जैन धर्म की आत्मा
जैन धर्म ओैर दर्शन पराकाष्ठा को निरुपित और निदर्शित करता है। इसमें वैभव की पराकाष्ठा को प्राप्त कर जहाॅ जीव चक्रवर्तित्व के भोग को प्राप्त करता है, वहीं वह वैराग्य की पराकाष्ठा पर पहुॅच कर बुद्धत्व,मोक्ष और निर्वेद को भी प्राप्त करता है। जैन धर्म विश्व का अकेला धर्मदर्शन है जो वैभव ओर वैराग्य दोनों को एक साथ निरुपित करता है।
जैनधर्म की आत्मा उसकी कला में स्पस्ट रुप से प्रतिबिंबित होती है। यह कला सौंदर्यबोध के आनन्द की सृष्टि करती है, पर उससे कहीं अधिक संतुलित,सशक्त,उत्प्रेरक और उत्साह वर्धक है। वह आत्मोत्सर्ग, शान्ति और ममत्व की भावनाओं को ंउभारती है। उसके साथ जो एक प्रकार की अलौलिकता जुडी हुई है वह आध्यात्मिक चिंतन और्र्र स्थलप्रायः पर्वतों की चेाटियों पर यानिर्जन और एकान्त घाटियोंएवं हरे भरे प्राकृतिक दृश्यो ेेंतथा शान्त मैदानों के मध्य स्थित हैं, जो एकाग्र ध्यान और आध्यात्मिक चिन्तन में सहायक एवं उत्प्रेरक होते है। यहीं पर मंदिरों आदि की स्थापत्य कला और सबसे अधिक मूर्तिमान तीर्थंकर प्रतिमाएंअपनी अनन्त शान्ति, वीतरागता और एकाग्रता से भ्सक्त को स्वॅय परमात्व तत्व की अनुभूति करा देती है।तीर्थ क्षंेत्रों की यात्रा भक्त जीवन की अभिलाषाये है। ये स्थान उनके कलात्मक मंदिर एवं मूर्तियों आदि के जीवन्त स्मारक है।
भारत की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्धि प्रदान करने में जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस धर्म ने देश के सांस्कृतिक भंडार को कला और स्थापत्य की अगणित विविध कृतियों से समपन्नता प्रदान की है। इसमें से अधिकाश की भव्यता ओर कला-गरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पडी है कि, उनकी उपमा विश्व में अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है।
जैन कलाकारों ने प्रतिमा शास्त्र के विधि विधानों पर विशाल मंदिरों तथा भव्य प्रतिमाओं का निर्माण कर कला की परम्परा को समृद्ध किया है। प्रस्तर एवं धातु निर्मित ये जिन मूर्तियाॅ न केवल जैन धर्म की भावना को , अपितु उनके निर्माता कलाकारों की गंभीर कला साधना को भी उद्घोषित करती है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त कला उदाहरणों में जैन कला का लोकानुराग भी स्पष्टतः प्रतिबिबित होता है। तीर्थंकर भगवंतो के दोनो पाशर््व में यक्ष- यक्षिणियों के युगल चित्र वस्तुतः जैन तीर्थकरों और कलाकारों के लोकजीवन के प्रति अनुराग के प्रतीक है। जैन कला में राष्ट्र के लोकजीवन का सजीव एवं यर्थाथ अभिव्यंजन भी हुआ है।
देश में जैन धर्म की उपासना का विस्तार होने के साथ- साथ जैन मंदिरों तथा मूर्तियो का निर्माण भी प्रचुरता के सााि हुआ हैं प्रतिमा शास्त्रीय जैन ग्रन्थों यथा- तिलोयपण्णत्ती, प्रवचन सारोद्धार,अभिदान चिन्तामणि प्रतिष्ठा सार संग्रह आदि के अलावा अन्य अनेक वास्तुशास्त्रीयग्रंन्थों में जिन या तीर्थंकरों, यक्ष एवं यक्षणियों के मूर्ति लक्षणों का विवरण मिलता हैं। अनेक े जैनेतर ग्रन्थों में भी जिन प्रतिमा का शास्त्रीय ज्ञान सन्निहित है। प्रचीन प्रतिमा शास्त्रीय ग्रन्थों में तीर्थंकर भगवंतो के प्रतिमा लक्षणों यथा आजानबाहू, वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिन्ह,शान्त तथा निर्विकार मूर्ति, दिग्वास,तरुण स्वरुपआदि को निर्दिष्ट किया गया है। रुपमण्डन में तीर्थकर प्रतिमा के आवश्यक तत्वों का निरुपण किया गया है। तीन छत्र,तोरणयुक्त तीन रथिकाएं,अशोक दु्रम और पत्र देव दुन्दुभि,सुर- गज-सिंह आदि से सुशोभित सिंहासन, अष्टमंगल, गेा ेसिंह या यक्ष आदि से अलंकृत वाहिका।
शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिन प्रतिमाएं केवल दो आसनों में बनायी जा सकती हैं। कायोत्सर्ग आसन,जिसे खड्गासन भी कहते हैे, तथा पद्मासन में।इसे ही कहीं कहीं पर्यआसन भी कहा गया हैं। दोनों प्रकार की मूर्तियाॅ सपरिकर एवं अपरिकर हो सकती है। इन दोनों आसनो को छेाडकर किसी अन्य आसन में जिन प्रतिमा निर्मित किये जाने का निषेध किया गया हैं।
जैन प्रतिमाओं में तीर्थंकर प्रतिमाओं की प्रमुखता रही हैं। इन्हें विश्वरुप, जगतप्रभू, केवल ज्ञानमूर्तितथा वीतराग कहा गया हैं। चतुर्विशति तीर्थंकरो के प्रतिमा लक्षणों में यद्यपि बहुत कम भिन्नता हेाती है तथापि उनकी विशिष्टताओं के आधार पर विभेद किया जा सकता हेै। लंाछन, ध्वज,वर्ण, शासन,देवता ओर देवी यक्ष- यक्षिणी केवल वृक्ष चामरधारी,व चामरधारिणी के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता हैं। जैन ग्रन्थ जिन प्रतिमाओं के साथ अलग- अलग वृक्ष और चामरघारिणी के नाम निर्दिष्ट करते है किन्तु रुपमन्डन सभी जिन प्रतिमाओं में अशोकद्रुम होने का विधान करता हैं । सभी तीर्थंकरों की मुद्राएं भी समान नहीं होती। भगवान् आदिनाथ ,भगवान नेमीनाथ, और भगवान महावीर, तीनों की मुद्राएं कमलासन है जो इनके कैवल्य- प्राप्ति की सूचक है। अन्य तीर्थकरों की प्रतिमा का कायोत्सर्ग मुद्र में प्रर्दशन आवश्यक हैं क्योंकि इन्हें इसी मुद्रा में निर्वाण प्राप्त हुआ था। तीर्थकर प्रतिमाएं, बौद्ध,प्रतिमाओं से काफी साम्य रखती हैं, परन्तु जिन प्रतिमाओं को उनके आभरण, अलंकार के आधार पर बौद्ध प्रतिमाओं से आसानी से अलग किया जा सकता हेंै। इसके अन्र्तगत स्वस्तिक,दर्पण, स्तूप, वेतमासन, दो मत्स्य, पुष्पमाला और पुस्तक विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
जैन धर्म की मान्यता हैे कि, संसारी जीव अपने कर्म बंधन के कारण देव, मनुष्य,तिर्यंच और नरक, इन चार गतियों में भ्रमण करता रहता हेंै। कर्र्म बंधन से सर्वथा मुक्त होने पर जीवात्मा सिद्ध अवस्था प्राप्त करता हेंै तथा लोक के अग्रतम भाग में जाकर स्थिर हो जाता हेंै तब उसे संसार में पुनः नहीं आना पडता हेंै। इन सिद्ध आत्माओं की संख्या असंख्य हेंै। सभी सिद्ध आत्माएं मनुष्य योनि से ही सिद्ध- अवस्था प्राप्त करती हेंै। तीर्थंकर मानव शरीर धारण करते हुये भी देवताअें द्वारा पूजित होते हेंै अतः उन्हें देवाधिदेव कहा गया हेंै। जैन प्रतिमाशास्त्रीय ग्रंथो में चैबीस तीर्थकरों के अतिरिक्त 24 यक्ष एवं यक्षिणी, 16 श्रुत देवियाॅ, 10 द्गिपाल, , 9 ग्रह, 8 मातृका तथा क्षेत्रपाल,सरस्वती, गणेश, श्री लक्ष्मी एवं शान्तिदेवी को भी प्रदर्शित व प्रतिष्ठिित करने का विधान किया गया हेंै।
प्रचीनतम जैन साहित्य में शासन देवताओं का उल्लेख नहीं मिलता। प्रचीनतम तीर्थकर प्रतिमाओं के साथ भी शासन देवताओं की प्रतिमाएं नहीं मिली है। इससे ज्ञात होता है कि, जैन प्रतिमा निर्माण के प्ररंभिक काल में शासन देवताओं की प्रतिमाएं निर्मित किये जाने की परम्परा नहीं थी। कई शोध ग्रन्थों के अनुसार शासन देवताओं के जैन शासन में प्रवेश के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है। उनके अनुसार 8 वीं शती में जैन साहित्य में तथा 9 वीं शती में जैन प्रतिमा निर्माण में शासन देवताओं का प्रवेश हुआ।
जैन धर्म में 24 यक्षों और उतनी ही यक्षिणियों की गणना शासन देवताओं के समूह में की गई है। ये यक्ष यक्षिणी तीर्थंकरों के रक्षक कहे गये हैं ।प्रत्येक तीर्थंकर से एक यक्ष ओर यक्षिणी समबद्ध है। वसुनन्दि में तीर्थंकर प्रतिमा के दाऐं यक्ष की और बांऐं यक्षिणी की प्रतिमा बनाये जाने का विधान किया गया है।कालान्तर में स्वतंत्र रुपसे भी यक्ष यक्षिणियों की प्रतिमाएंे बनाये जाने लगी। इन्हें जैन परम्परा में सेवक या रक्षक का देव स्तर मिला है न कि उपास्य देव का परन्तु इसकी स्वतंत्र उपासना भी की जाती है। यक्ष यक्ष्णिियों की प्रतिमाऐं सर्वांग सुन्दर , सभी प्रकार के अलंकरणों से विभूषित और अपने- अपने बाहनों तथा आयुधों से युक्त बनाने का विधान वसुनन्दि में किया गया हैं। वे करण्ड मुकुट और पत्रकुण्डल धारण किये हुये बनाई जाती है।
जैन धर्म और उनके अनुयायियों को अतीत बहुत ही गौरवशाली रहा हैं| इन्होनें भारत की सांस्कृृतिक धरोहर को अतुलनीस समृृद्धि प्रदान की है।। देश के सांस्कृतिक भण्डार को कला और स्थापत्त्य की अगणित की अगणित विविध कृतियों से भर दिया है। इस अनुपम योगदान को सीमाओं तथा विवेचनों में सीमित या सीमांकित करना असंभव है। अधिकांश की भव्यता और कला- गरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पडी है कि, उनकी उपमा अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है।