हम राम भरोसे ….

हम राम भरोसे ….

होती राजनीति,
जलती अँगीठी,
बस बातें मीठी,
कूटनीति कुरीति ।

हों झूठे वादे,
अनैतिक इरादे,
मतलब के नाते,
गाँठें ही गाँठें ।

थाली के बैंगन,
दागी हर दामन,
है प्रदूषित मन,
देख रोए चमन ।

बेच डाले ज़मीर,
धुंधली तस्वीर,
खून हो गया नीर,
दिल केवल फ़क़ीर ।

खेलें शतरंज,
दूजे पर तंज,
केवल षड्यंत्र,
बेबस जनतंत्र ।

जोडें हैं हाथ,
ना पर जज़्बात,
डाकू अज्ञात,
लूटें बारात ।

तेरे मुँह पर तेरे,
मेरे मुँह पर मेरे,
काले बादल घेरे,
कब होंगे सवेरे ?

जूं ना है रेंगे,
डींगें ही हांकें,
मतदान में जागें,
बस भीख हैं मांगें ।

है अंधा राज,
गुंडों को ताज,
है नेक पे गाज,
झपटें हैं बाज ।

कैसा ये श्राप !
जहां देखो पाप,
बेबस इंसाफ़,
देखे चुपचाप ।

ये सचमुच कलयुग,
सज्जन भोगे दुख,
कैसा हुआ मानुष !
मारकाट में है ख़ुश ।

सत्ता का नशा,
है ख़राब बड़ा,
जो कोई फंसा,
दलदल में धंसा ।

कौन झूठा सच्चा !
परखना नहीं बस का,
मेल दूध व जल का,
ना आसरा हल का ।

हम महज़ मोहरे,
कठपुतली डोरें,
ये दीमक दोगले,
पेड़ सारे खोखले ।

किसको हम कोसें !
क्या करें – ये सोचें,
ख़ुद आँसूं पोंछें,
हम राम भरोसे …
हम राम भरोसे … ।

स्वरचित – अभिनव ✍🏻

कविता