गिल्लू की खूबसूरती के क्या कहने ! मनमोहक चेहरा, छोटे , तिकोने और पैने कान, दो प्यारी -सी आंखें जैसे चेहरे में दो काले मोती जड़े हों , नन्हा – सा मुँह और उसके अंदर आरी से भी तेज़ दांत , स्लेटी रंग का शरीर, उसपर काली सफ़ेद धारियां , पाँव इतने चपल की सेकंड में ये जा , वो जा . पर मेरे मन पर जिसने छाप छोड़ी ,वह है उसकी पूँछ – घनी , मुलायम जैसे किसी मशहूर अभिनेत्री का मेकअप ब्रश . कभी सोचा न था की चूहों की प्रजाति का कोई प्राणी मेरे मन को मोह लेगा . मुझे आश्चर्य कम और धक्का ज़्यादा लगा जब मुझे ये मालूम पड़ा की गिलहरियां और चूहे एक ही प्रजाति के , एक ही परिवार के हैं . पर यह सत्य है मानो या न मानो!
उसकी तीव्र गति को आँखों में क़ैद करने की मेरी इच्छा कभी कम ही नहीं होती . मेरी आँखें उसका पीछा करते – करते अच्छा – खासा व्यायाम कर लेती हैं. पिछली गर्मियों में मेरी उससे पहली मुलाक़ात हुई जब अपने बगीचे की गिलहरियों के बीच उसे इधर उधर भागते मैंने देखा . नन्हा – सा जीव बिजली की तरह तेज़ , उसकी हलकी – सी पूँछ जो ऐन्टेना की तरह खतरे को भांपने के लिए मानो खड़ी हो . पहली नज़र में गिल्लू से प्यार हो गया और झट से उसका नामकरण भी . छोटी सी गिलहरी को गिल्लू सूट करता है .
दोपहर के भोजन के समय वह हमारे जाली के दरवाज़े पर दौड़ा करता और खाना खाते समय में उससे पूछा करती – गिल्लू खाना खायेगा क्या ? भूख लगी है? आज भिंडी बनी है. मानो , वो अभी दावत स्वीकार कर अंदर तशरीफ़ ले ही आएगा. गिल्लू मेरी बात बहुत ध्यानपूर्वक सुनता बिलकुल कान लगाकर . उसकी आँखें मेरी आवाज़ से चिपकी रहती . मज़े की बात यह है की वह दरवाज़े पर उल्टा लटकता है और अगर उसके पास कुछ खाने को हो तो खाता भी उल्टा लटककर है. हम ऐसा करें तो भगवान को प्यारे हो जाएं. उसकी कमाल की हरकतें मुझे आशचर्य में डाल देती हैं . गिल्लू मनोरंजन की चलती – फिरती दूकान है .
जैसे -जैसे गिल्लू बड़ा हुआ , माता पिता ने उसे आज़ाद कर दिया . वह नीम के कटे पेड़ की मुंडी पर जा बैठता और नेपोलियन की भांति सारे क्षेत्र का मुआयना करता . नीम के इस पेड़ को पड़ोस के माली ने बेतरतीब काट दिया है , उसका ऊपरी हिस्सा ठूंठ जैसा दिखता है और डालियाँ नीचे की तरफ झुकी हुई हैं जैसे की पेड़ की हालत पर शर्मिंदा हों . नीम का पेड़ मानो गिल्लू की जागीर हो गया . सुबह सवेरे वह डाल -डाल, पात – पात फुदकता फिरता . जब यह मिशन पूरा हुआ , तो उसने मेरे बगीचे की खोज- खबर लेनी शुरू की . हर बेल , हर झाड़ी , हर गमले , हर कोने से उसने खुद को परिचित किया . पत्तियां , डंडियां , ज़मीन पर गिरे बीज , घास और जो भी उसे मिला , उसने सब चख कर देखा ठीक वैसे ही जैसे नन्हा बालक जिज्ञासापूर्ण हर चीज़ अपने मुँह में डालकर जानने की कोशिश करता है की वह क्या है .
मेरे बगीचे में कई गिलहरियां आती हैं , धमाचौकड़ी मचाती हैं , कभी- कभी नयी पौध भी रोद जाती हैं पर उनपर गुस्सा नहीं हुआ जाता . नहीं बिटिया की तरह इठलाती घूमती हैं , शरारत करती हैं और पलक झपकते गायब ! इन सबमें गिल्लू मुझे सबसे प्यारा है . बड़ी गिलहरियों से गिल्लू ज़्यादा चंचल है और स्मार्ट भी .
गिल्लू के बारे में बातें रोज़ होती हैं – कितना छोटा है ! कितना क्यूट है ! इसकी पूँछ तो देखो ! . सुबह की चाय लेकर जब बैठक में बड़ी खिड़की के पास बैठो , तो गिल्लू नीम पर गुलाटियां खाता , उत्पात करता दिखता . मेरी चाय का मज़ा दुगुना हो जाता और चेहरे पर मुस्कान चिपक जाती .
पर गिल्लू से मेरा प्रेम सर्दियों में ही गहराया . सारे काम निपटाकर जब धुप सेकने बैठो तो वह कुर्सी के आस पास से तीर की तरह निकलता , जब मूंगफली खाओ तो टकटकी लगाकर देखता . मैंने उसे मूंगफली देनी शुरू की . वह मनुष्यों की तरह लालची नहीं है , एक बार में एक ही मूंगफली लेता है , दोनों हाथों में पकड़कर , कट- कट , कट – कट उसके नुकीले दांत मूंगफली के खोल को हटा दानों पर टूट पड़ते हैं . अगर कोई बड़ी गिलहरी या चिड़िया उसके समीप आती , तो वह दाने मुँह में दबा किसी सुरक्षित स्थान पर भाग लेता है. वहां तसल्ली से दाने खा कर दूसरी मूंगफली के लिए वह फिर मेरी कुर्सी की तरफ रुख करता.
वह धीरे धीरे मेरी तरफ बढ़ता, ज़रा – सी आहट से वापिस भाग जाता, फिर मुड़ता, फिर बढ़ता और एक सुरक्षित दूरी बनाकर प्रतीक्षारत हो जाता . दूसरी मूंगफली उसकी तरफ फेंकी जाती .वह इधर उधर सूंघता हुआ आगे बढ़ता, अचानक से मूंगफली पर लपकता और भाग लेता जैसे की कोई उसकी मूंगफली छीन लेगा. कुछ दिनों पश्चात् वह निश्चिन्त हो गया की मैं दुश्मन नहीं हूँ . एक दिन मैं धूप में बैठी कुछ लिख रही थी की देखती हूँ वह घास पर बिलकुल मेरे पास बैठा है चुपचाप . हमारी नज़रें टकराई . मैंने मूंगफली के डिब्बे की ओर धीरे से हाथ बढ़ाया पर आश्चर्य, वह हिला नहीं . वहीँ टिका रहा . पुचकारते हुए मैंने मूंगफली नीचे रखी तो उसने अपने दो पंजों में उसे दबोचा और वहीँ खाने लगा . हमारे बीच की दूरी घट रही है. अब तो गिल्लू कुर्सी के नीचे भी बैठने लगा है.
पिछले हफ्ते गिल्लू ने अपनी चंचलता से मुझे घायल कर दिया . इतवार को हम किसी आवश्यक काम में पूरा दिन व्यस्त रहे . सोमवार जब में कुर्सी लेकर लॉन में पहुंची तो गिल्लू मिलने आया . एक ही मूंगफली खाकर खिड़की के छज्जे पर जा बैठा . अपना मुँह उसने छज्जे के सिरे पर टिका दिया और मुँह फुलाकर बैठ गया . यकीन करना मुश्किल था पर उसने जिस तरह मेरी अवहेलना की मुझे विश्वास हो ही गया की जनाब नाराज़ हैं . बहुत पुचकारने और मिन्नतों के बावजूद वह टस से मस न हुआ. मैं बात करूँ तो वो दूसरी तरफ देखे . गिलहरियां भी रूठती हैं उस दिन पता चला.
“वहां कहाँ बैठा है? नीचे उतर.आ ,मूंगफली खाते हैं.”
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“आजा, देखकर भी मुँह न मोड़. आजा बेटा.”
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“देख तो सही कैसी मोटी मोटी मूगफलियाँ हैं !”
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“भई ,कल हम बिजी थे , नहीं आ पाए बगीचे में ,हो जाता है ऐसा कभी कभी .”
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“इतना हठ अच्छा नहीं .आजा, आ, आ, आ भी.”
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“अच्छा चल ,सॉरी; गिले – शिकवे माफ़ कर . आजा! “
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“बड़ा ज़िद्दी है ! सुनता ही नहीं ! अब मुझे भी गुस्सा आ रहा है ,सुना ?”
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“बोल तो दिया सॉरी ,भाई.”
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“इतनी ढिठाई? देख कर अनदेखा कर रहा है ? नालायक!”
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“जा, छज्जे पर ही रह!”
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पर मन है की मानता ही नहीं.
“आजा गिल्लू.आ न! रात गयी ,बात गयी .इतना गुस्सा सेहत के लिए ठीक नहीं.”
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“जा, में भी नहीं आऊंगी तुझे मिलने और मूंगफली भी नहीं लाऊंगी.”
उसने मुझे ऐसे देखा जैसे कह रहा हो ये गीदड़ भबकियाँ किसी और को देना.
मूंगफली दिखाई तो भी गिल्लू पर कोई असर नहीं.
हारकर मैंने छज्जे पर ही उसका नाश्ता फेंका उसने लपककर मूंगफली खा ली पर कोपभवन से नहीं निकला . मुझे अनदेखा कर उसने मेरे दिल को बहुत आहत किया पर अपनी चतुराई का लोहा भी मनवा लिया . में कायल हो गयी – रूठना अपनी जगह है और पेट पूजा अपनी जगह . काश! हम इंसान भी इस बात को समझ पाते तो रूठने पर खाने का बहिष्कार नहीं करते . एक सच ये भी है की जब किसी व्यक्ति से रूठने और भोजन से भो रूठने को एकसार कर लिया जाये तो जिससे मन मुटाव होता है उसपर दबाव दुगुना हो जाता है .
पति ने गिल्लू की धूर्तता देखकर मुझे चेतावनी दी : “इसे छज्जे पर मत खिलाओ , आदत बिगड़ जायगी.ओवरस्मार्ट हो रहा है.” वह जब क्यारी में गुड़ाई कर रहे थे तो मैंने चुपके से कुछ मूंगफलियां गिल्लू पर न्योछावर कर दी . सब साफ़ .
अगले दिन मैंने पति से पूछा –“ गिल्लू दिखा?”
“हाँ,छज्जे पर है ,कल की तरह .अब न आएगा ये नीचे .अपने अड्डे पर ही जमावड़ा लगाएगा.”
मेरी हसी छूट गयी . गिल्लू न हुआ हीरो हो गया पर हीरो तो वो है . दिन में कितनी ही बार छज्जे से कुछ दूरी पर फलते हुए गुड़हल पर छलांग लगाकर बगीचे में उतरता है और अकस्मात ही मेरे सामने प्रकट हो जाता है . कुछ कहूं तो सिर को एक तरफ झुका कर टकटकी लगाकर सुनता है . अब हाथ से भी दाने उठाने लगा है . खाते समय कनखियों से मुझे देखता रहता है की कहीं मैं उसपर लपक न पडूँ . आखिर हूँ तो इंसान ही और गिल्लू के लिए इंसानों पर भरोसा करना सहज नहीं . खैर मनुष्यों के बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे , अभी तो गिल्लू ने मेरे ह्रदय पर आधिपत्य स्थापित कर रखा है!