दशहरा
(स्वरचित – अभिनव ✍️)
सूख शांति का पर्व,
हमें इस पे गर्व ।
मंगलमय वेला,
आई रौनक मेला ।
हुआ मद का अंत,
प्रेम गहन अनंत ।
पूरा हुआ बनवास,
हुआ कुरीतियों का नाश ।
हर पल संयम,
ना करुणा कम ।
करे काम नेक,
और रखा विवेक ।
बह गई ईर्ष्या,
मिली सही दिशा ।
भागा अन्धकार,
आई मौज बहार ।
सद्भावना का प्रतीक,
मिली अनेकों सीख ।
मन हरा भरा,
तम ना ठहरा ।
खुशियों का बिगुल,
रहें हम मिल जुल ।
अब बस आलस,
नम थे सिर दस ।
थक गया था छल,
जब ना मिला हल ।
एक नई शुरुआत,
ना द्वेष ना राग ।
ना बच सकी हठ,
हर कोई कर्मठ ।
सो गया है क्रोध,
उसे हो गया बोध ।
दुख पूर्ण विराम,
और थम गया काम ।
हुई सच की जीत,
झूठ भयभीत ।
उठी अब उम्मीद,
गई बुराई बीत ।
हुआ नया सवेरा,
ये महज़ ना मेरा ।
मिला बिछड़ा मीत,
रौनक और गीत ।
पुरुषार्थ परिक्रम,
हैं अब हमदम ।
ना रह गया रावण,
हर मन अब पावन ।
हर जगह हैं राम,
यहीं चारों धाम ।