उम्र के महल मे घूमती देह को
झुरियों की नजर लग गई
माथे की सिल्वटें
चिंता के सिलबट्टे पर पिस गयी
जीवन की आधी रातें सोच विचार मे
और आधे दिन बेकार हो गए
जो थे आंचल के पंछी
अब हवा के साहूकार हो गए
हर रोज कहती है जिंदगी मुझसे
जाओ तुम तो बेकार हो गए
हम भी ठहरे निरे स्वाभिमानी
लगा ली दिल पर चोट गहरी
उठा कर पोटली अपनी
महल से बाहर हो गए
अब भटक रहे हैं
थोड़ा सटक गए हैं
अब कंठ की अवाज लिख देते हैं
कुछ विशेष तो हासिल हुआ नहीं
बस कुछ लोगों के दुलार मिल गए
कुछ कच्चे पक्के रिश्ते पकाए
कुछ को हमने पीठ दिखाई
और कुछ के राजदार हो गए
रास नहीं आती अब ये दुनियादारी
लोग कहते हैं कि हम बीमार हो गए हैं.