भिन्न भिन्न चेहरे
अलग-अलग रंग और
अलग-अलग रूप के
बहार से नहीं
अंदर के ये चेहरे
कोई है डरे सहमे,
कोई खिले-खिले से चेहरे
माँ जैसे परेशां,
पिता जैसे क्रोधित
बच्चों से बेफिक्र चेहरे
संस्कारों में पले
समय से ढले
भाषाओँ से मिले
हिंदी को भूले चेहरे
विकृति में रमे
संस्कृति से थमे
गाँव से निकले
शहर में बसे चेहरे
तन से उपस्थित
मन में गुमशुदा
त्रिशंकु से लटकते
बेबस से चेहरे
संस्कारों के
बीजों से निकले
विकारों के
पानी से सींचे
सिक्कों और
कागजों के सुर
खनक-खनक कर
औंधे मुँह गिरे
सरस्वती छोड़
लक्ष्मी पर दाव
लगाते चेहरे