अन्याय पे लगाम लगाएं …
जब मैं रोता हूँ,
तब तू हंसता है,
मैं आंखें भिगोता हूँ,
तू साज़िश रचता है ।
जब मैं फँसता हूँ,
तुझे मज़ा आता है,
मैं अंदर धंसता हूँ,
तू और सुनाता है ।
मेरी खुशियां मेरी नज़्म,
तुझको ना हैं होती हज़्म,
हरे और हो जाते ज़ख्म,
तू बद्दुआ मुझको देता जब ।
बिना बात कसे जाते तंज,
कमज़ोर पड़ जाए सेहतमंद,
व्यंग्य, कटाक्ष व ताने होते,
ना जाने कितने हैं मुखोटे ?
कर जो दे तू कोई जो काम,
सौ गुना फ़िर लगते अहसान,
कराया जाता है अहसास,
मैं हूँ , रहूंगा केवल दास ।
मैं जो बढ़ता तो तू चिढ़ता,
वाद विवाद, तू मुझसे छिड़ता,
दुश्मनी मुझसे लेता मोल,
अमृत में देता ज़हर है घोल ।
अपनी मर्यादा पार है निकलता,
वजह बेवजह तंग तू करता,
पंगे लेता, विघ्न डालता,
फ़ालतू में हर बात उछालता ।
मेरे ख़िलाफ़ तू बनाता षड्यंत्र,
कहने को मैं हूँ स्वतंत्र,
जाल में पहले मुझे फांसता,
अंजां बन फिर बगलें झांकता ।
हर चीज़ में मेरी गलती,
तूने तो हद ही है करदी,
तर्क से मैं जो समझाता,
तू उस पल अनजां बन जाता ।
जाने किस चीज़ का रोष है तुझमें ?
हर त्रुटि का दोष ही मुझमें,
जो भी हो वो साफ़ कर कहानी,
हो दूध का दूध, पानी का पानी ।
चैन से जी तू, मैं भी जिऊँ,
भर गया घड़ा, अब कितना पीऊं ?
जहां है जायज़, वहां सुधरूँगा,
अब ना मैं अन्याय सहूँगा ।
बहुत घुट लिया मैं हूँ अंदर,
बहुत हुआ बिन कारण डर,
वहम नहीं ये, ना कोई शक,
पक्के सबूत दिए सामने रख ।
स्वरचित – अभिनव ✍🏻