रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास का प्रधान ग्रंथ है जो एक प्रबंध काव्य है।ग्रन्थ के प्रारंभ में तुलसी ने कथा के प्रबन्ध की सविस्तार प्रस्तावना प्रस्तुत की है। उसके पश्चात् रामकथा का वर्णन प्रबन्धात्मकता की दृष्टि से अवर्णनीय है। रात का अवतार ही एक प्रयोजन को लेकर होता है और जन्म से पूर्व ही उस प्रयोजन का तुलसी ने उल्लेख किया हैं। राम के साथ- साथ रावण कि आविर्भाव का भी पूरी तरह कवि ने कारण प्रस्तुत किया है। रावण के अत्याचारों से पृथ्वी त्रस्त होती है। पृथवी को इस त्रास से मुक्ति प्रदान करने के लिये राम अवतार लेते है।
मानस की काव्य सरिता का उद्गम स्थल कवि का वह हृदय रुपी मानसरोवर है, जिसमें राम का यश रुपी जल भरा हुआ है। साधु संतों ने वेद पुराणों का सार खींचकर राम के यशरुपी जो जलवर्षा की उससे हृदयरुपी मानासरोवर भर गया। वही ‘रामचरितमानस’ रुपी नदी लोक में आज भी जन-जन के बीच अजस्त्र गति से प्रवाहित होती जा रही है।
महाकाव्य के लिये जिस गुरुत्व, गांभीर्य और महत्ता की आवश्यकता होती है तुलसी के रामचरितमानस में पूर्णरुपेण शामिल है। उसमें जीवन मूल्यों की जा विवेचना की गई है ओर उनका जो प्रतिमान स्थ्रि किया गया है वह सार्वभौम और सार्वकालिक है। इन्हीं जीवन मूल्यों के कारण रामचरितमानस, भारतीय साहित्य का गौरव ग्रन्थ बन गया है।तुलसी ने मानस में वह गुरुता उत्पन्न कर दी है जो विश्व साहित्य कुछ इने गिने महाकाव्यों में ही दिखलाई पडती है। मानस में जीवन मूल्यों की स्थापना , चिन्तन, विवेचन, तथा उपदेष के रुप में , तथा पात्रों के क्रियाकलापों के रुप में की गई है।
रामचरितमानस तुलसी का सुदृढ कीर्तिस्तम्भ है जिसका कथाशिल्प काव्यरुप अलंकार योजना,छंदनियोजना और उसका प्रयोगात्मक सौंदर्य, लोक संस्कृति तथा जीवन मूल्यों का मनोवैज्ञानिक पक्ष अपने श्रेष्ठ रुप में है। मूल रुप से अवधी भाषा में लिखे गये इस ग्रन्थ में भारम की समस्त भाषाओं ओर बोलियोंृ के शब्द है। यहाॅ तक कि, एक ही चोपाई में कई कई भाषाओं के शब्दों का उपयोग किया गया है।
मानस में व्याकरण श्रेष्ठ रुप में प्रस्तुत है उदाहरणार्थ अनुप्रास अलंकार:-
मानस के सात खंडों को मानस मर्मज्ञों ने इन रुपों में निरुपित किया है।1 बालकाण्ड -ब्रम्ह विद्या, 2 अयोध्या काण्ड – राजविद्या 3 – अरण्य काॅड – योग विद्या 4- किष्किन्धा काण्ड- बालीविद्या, 5 सुन्दरकाण्ड- समयानुकूल सामथर््य के उपयोग की विद्या 6 लंकाकाण्ड- शस्त्र ओर रण विद्या, तथा 7- उत्तरकाण्ड- आध्यात्म विद्या ।
तुलसी का धर्म वहीं पुरातन धर्म था, जिसे आज तक की सम्पूर्ण संस्कृति को अपने अंदर समेटा हुआ था। जिसका अपना साहित्य था, इतिहास था दर्शन था। तुलसी के धर्म में ईश्वर, प्रेम , कर्तव्य, विचार और भावनाएं आती है। तुलसी का चिन्तन अत्यन्त व्यापक था उन्होने आडम्बरों को अविद्याा ओर अज्ञान के रुप में देखा। उन्होनेंअपने समय की प्रचलित सभी विचारधाराओं में एंक्य स्थापित करने का प्रयास किया तुलसी ने परब्रम्ह राम में सर्व शक्तियों को सन्निहित करके मान के साथ विष्णु और शिव का समन्वय कर दिया।
तुलसी अपने समय के श्रेष्ठ विचारक थे, जिसने देश के प्रचलित धर्म ,मत- मतान्तरों आस्थाओं तथा विश्वास, वेद-शास्त्रों सामाजिक तथा नैतिक कुरीतियों और राजनैतिक विषय पर श्रेष्ठ चिन्तन किया। उन्होने भारतीय दर्शन के चिन्तन के साथ साथ-ब्रम्ह, जीव,प्रकृति, माया इत्यादि के रहस्यों का उदाहरणों सहित स्पस्टीकरण किया है तथा भगवान के अनेक रुपाों में एकरुपतास्थापित की है ओर अपनी मान्यता को सबकी मान्यता का रुप देकर उसे अधिकाधिक व्यापक बनाने में योग दिया है।
तुलसीदासजी की अनेक रचनाओं में बारह रचनाएं प्रमाणित है। जिसमें रामलला नहछू, रामाज्ञा प्रश्न, जानकी मंगल, पार्वती मंगल,गीतावलि आदि प्रमुख हैं। लेकिन रामचरित मानस की रचना कर तुलसी ने राम को भारतीय जन मानस में स्थापित और जीवन्त कर दिया है, तथा राम को श्रेष्ठ चरित्रवान, नीतिवान तथा आस्था का प्रतीक बना दिया है। उन्होने जा लिखा वो सीधा साधा और राम की भक्ति में भावविभोर लिखा। उन्होने अवधी के साथ- साथ ब्रजभाषा, भोजपुरी, और बुन्देलखण्डी में भी लिखा। उनके लिये साहित्य में शाब्दिक कलाबाजियाॅ कोई महत्व नहीं रखती थीं, वे तो भावना ओर विचार के कवि थे।
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