कविता

विरह के दीप – कविता

खुशियों के दीप जलें हैं तुम पर हरिताभा-सी छाई है |
विरहिणी की दीवार पर विरहाग्नि-सी लौट आई है ||
किससे और क्यों कहें ? इस दिले चमन की दास्तां |
हमने तो हर दिन और रात विरह के दीप जलाए हैं ||

मै लेखक अजय महिया मेरा जन्म 04 फरवरी 1992 को एक छोटे से गॅाव(उदासर बड़ा त नोहर. जिला हनुमानगढ़ राजस्थान) के किसान परिवार मे हुआ है मै अपने माता-पिता का नाम कविता व संगीत के माध्यम करना चाहता हूं मै अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूं

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