कविता

मिलन को रास रचाता हों

नज़रों की सीमा से मीलों उपर
कोई गीत मिलन के गाता हों।

जहां सूरज बातें करता हों
बिखरी रोशनी समेटता हों।

धरती भी अलसाती हों
बादल ओढ़ लजाती हों।

चांद बीच आ जाता हों
जलन में मुंह बिचकाता हों।

शाम ढले सब प्रीत लिए
मिलन को रास रचाता हों।।

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