लेखख़ास

ख़तरे में है वसुंधरा!

बचपन से आज तक दादी-नानी की कहानियो में सुनते आए है कि यह धरती हमारी माँ स्वरूपा है। हमें ये संस्कार मिले है कि सुबह उठते ही सबसे पहले इस धरती को वंदन करो। यही हमारे भारतीय संस्कार रहे है। किंतु अफ़सोस है कि हमने आज तक इन बातों पर अमल नहीं किया है। आज हमारी महत्वकांशा एवं कथित विकास के स्वार्थ में इतने अंधे हो चुके है कि हम अपनी माँ की रक्षा तक नही कर पा रहे है।

आज सिर्फ़ पैसे के दम पर हैसियत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने और लालच की होड़ में हम हमारी सोने के अंडे वाली मुर्ग़ी के समान हमें अमूल्य संसाधन प्रदान करने वाली पृथ्वी को भी हलाल करने में लगे है। यही कारण है कि भारत समेत समूचे विश्व में पर्यावरणीय एवं जलवायु असंतुलन, प्रदूषण, प्राकृतिक आपदाएँ, कई प्रजातियों का विलुप्तिकरण तथा तापमान वृद्धि जैसी कई समास्याओ से झुँझ रहा है। हाल में ही जापान, नेपाल समेत कई देशों में भूकम्प से हानि हुई है। दिल्ली एनसीआर समेत पूरे उत्तर भारत में बाई भूकम्प के झटके महसूस किए है। भूकम्प ही नही, आज कोरोना महामारी से पूरा विश्व बुरी तरह से घबराया हुआ है।

कथित तौर पर कोरोना का कारण भी दुर्लभ जीवों की हत्या एवं जैविक असंतुलन ही माना जा रहा है। कही पर कभी अतिवृष्टि तो कही पर कभी अनावृष्टि, कही सुनामी, कही बाढ़ तो कही पर सूखे से अकाल की स्थिति उत्पन्न हो रही है। जब वन नही रहे तो वृक्ष नही रहे और वृक्ष नही रहे तो शुद्ध वायु नही रही। इसी कारण भूक्षरण बढ़ा, ऋतु चक्र असंतुलित होकर वर्षा में अनियमितता हुई। विश्व में कई प्रकार की जीव जंतु की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है, जिससे पूरा जंतु चक्र असंतुलित हो चुका है। अमूल्य संसाधनो का दोहन आज चरम सीमा पर है।

हम इतने में ही नही रुके, हमारे कथित विकास और आधुनिककरण के भेष में स्वार्थ में अंधे होकर औद्योगिक क्रांति के नाम पर दिन-रात हवा-पानी में ज़हर घोलने में लगे हुए है। भारत में ही देखा जाए तो, कई शहर और गाँव मे पानी में फ्लोराइड समेत रासायनिक तत्वों की इतनी अधिकता है कि वहाँ जन्म लेने वाले 60 से 70 प्रतिशत बच्चे विकलांग पैदा हो रहे है।

आज देश में दिल्ली समेत कई जगहों की हालत ये है कि हवा में मौजूद ज़हर के कारण बच्चों को मास्क लगा कर स्कूल जाना पड़ रहा है। हालात यह है कि वहाँ आधी से अधिक आबादी को श्वास या अन्य प्रकार की प्रदूषण जनित बीमारियाँ बुरी तरह से जकड़ चुकी है। साथ ही क्लाइमेट भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। जिसके परिणामस्वरूप दुनिया भर में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि प्रभावित हो रही है। लगातार तापमान में वृद्धि हो रही है।

बार बार प्राकृतिक आपदाओं का आना हमारे लिए प्रकृति की चेतावनी है कि हमें ये कथित विकास अर्थात सम्पूर्ण पृथ्वी का विनाश रोकना होगा। इसी विनाश को रोकने और कथित विकास की चिरनिंद्रा से जगाने के लिए आज ही के दिन 22 अप्रैल 1970 को अमेरिका में ज़ेराल्ड नेल्सन ने पृथ्वी की रक्षा और आगे हम सभी के जीवन को बचाने के लिए पृथ्वी दिवस मनाने की मुहिम को शुरू किया। जो आज तक जारी है।यूँ तो वर्ष भर में 2 बार पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। एक 21 मार्च को, संयुक्त राष्ट्र के समर्थन से और एक 22 अप्रैल को। दुनिया भर में इन दो दिनो पर्यावरण संरक्षण और पृथ्वी बचाने की कई बातें होती है, कई सम्मेलन, कई सेमिनार, रैलियाँ आदी तक का आयोजन होता है। किंतु वास्तविक धरातल पर इसका कोई प्रभाव आज तक दिखाई नही दिया है।

1970 से लेकर आज तक कितने की पृथ्वी दिवस माना लिए। हर साल अलग-अलग थीम पर चर्चाएँ भी की किंतु अभी एक एक क्षेत्र में भी हम सफल नही हो पाए है। हम आज तक इस निष्कर्ष तक भी नही पहुँच पाए कि पृथ्वी के इस हाल के ज़िम्मेदार कौन है? साथ ही साथ मानवीय विभीषिकाओं से हम अपनी स्वयं की ज़िम्मेदारी समझने और ज़िम्मेदारी को पूरी करने की कौशिश भी नही कर रहे है।

आज पर्यावरण संतुलन को फिर से सही करने की ज़िम्मेदारी विश्व के प्रत्येक देश की है। किंतु विकसित देश अपने दायित्वों को स्वीकार करने के बजाय सारा दोष विकासशील राष्ट्रों पर डाल देते है। वही विकासशील देश अपनी विकास की मजबूरियो का हवाला देकर बचने का प्रयास करते है। इन कारणो से पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय चिंताए तो व्यक्त की जाती है लेकिन कोई ठोस पहल नहीं हो पाती है।

उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है कि अमेरिका क्योटो संधि में शामिल नही हुआ है। यदि विश्व का सबसे सम्पन्न देश ही किसी ऐसे प्रयास का हिस्सा नही बनेगा तो उसकी सफलता स्वतः ही संदिग्ध हो जाती है।समझदारी इसी में है कि समय रहते चेता जाए। हम अपने आस-पास को भी देखे एवं पर्यावरण को पर्दशन होने से बचाए। साथ ही साथ अधिकाधिक वृक्ष लगाए। वरखरोपन और उनकी देखरेख पर्यावरण और पृथ्वी बचाने का सबसे सस्ता, सुलभ और त्वरित उपाय है।

हर स्तर पर एक जन आंदोलन हो और जँचेतना जागे, ताकि महाविनाश से पहले ही हम संभाल जाए। हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि मनुष्य को पर्यावरण की रक्षा के लिए अपनी विकसत्मक गतिविधियों को रोकना जर्री नही है। किंतु इतना ज़रूर है कि। हमें पर्यावरण की क़ीमत पर विकास नही करना चाहिए क्योंकि विकास से अभिप्राय समग्र विकास होता है, केवल आर्थिक उन्नति नही। हम सभी को ये भी ध्यान रहे की ये पैड-पौधें, नादिया, तालाब, वन, वन्य-जीवहमारी पिछली पीढ़ियों ने हम तक सुरक्षित पहुँचाया है।

अतः हमारा भी दायित्व है की हम इनकी रक्षा कर के आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित करे। इसके लिए हमें किसी भी क़ीमत पर प्रदूषण रोकना होगा। साथ ही अधिक से अधिक मात्रा में वृक्ष लगाने होंगे। जिससे पुनः वायु शुद्ध होकर शीतलता प्रदान हो। आज ही हमें ये प्राण भी लेना होगा की अपने जीवन काल में कम से कम 25 वृक्ष लगा कर उन्हें बढ़ा करना है। हमें अपने जन्मदिवस पर या हर उत्सव के दिन एक-एक पौधा लगा कर उसे बड़े करने की ज़िम्मेदारी उठानी होगी।

साथ ह हमें ये महसूस करना होगा की मनुष्य के साथ ही जीव-जंतु, वृक्ष, नादिया, पर्वत, वन आदी भी इस प्रकृति के समान अंग है। हम सब परस्पर निर्भर है। यदि प्रकृति हमारे उपभोग के लिए संसाधन प्रदान करवाती है तो हमें भी इसके सामवर्धन के लिए कार्य करना होगा। इसी से हमारा पर्यावरण सुंदर व संतुलित बनेगा और पृथ्वी दिवस मनाने का मूल लक्ष्य भी प्राप्त होगा।

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