एक लड़की की कहानी
एक लड़की जो सच में बहुत खूबसूरत थी।
मानो जैसे संगमरमर की जागती मूरत थी।
उसके साथ हर पल उसके बहुत अपने थे।
उसकी खुली आंखों में भी बहु बड़े सपने थे।
वह भी एक दिन आगे बढ़ना चाहती थी।
हवाओं के साथ आजाद उड़ना चाहती थी।
लोगों के बीच से वह जब भी गुजरने लगी।
तब- तब उस पर लोगों की नज़र पढ़ने लगी।
फिर एक दिन उस लड़की की शादी हो गई।
ये मानो उसकी ज़िन्दगी की बर्बादी हो गई।
उसके पति ने उस लड़की को छोड़ दिया।
जो भी ख़्वाब देखे थे, सबको तोड़ दिया।
बच्चों को लेकर वो इधर उधर भटकती रही।
किस्मत उसकी, उसे यहां वहां पटकती रही।
फिर भी अपने हाल में जीती रही वो लड़की।
बंद न होने दी उसने अपने जीवन की खिड़की।
फिर एक दिन किसी को उस से प्यार हो गया।
प्यार सच्चा लगा था इसलिए एतबार हो गया।
लेकिन वह लड़का भी, फायदा उठा रहा था।
वो थी नादान, उसे झूठे सपने दिखा रहा था।
लंबी नहीं चल पाई उन दोनों की ये कहानी।
अपने रास्ते निकल गई फिर लड़की अंजानी।
यहां कट रहा था, लड़की का सफर अंधेरे में।
बस इंतज़ार था, कि रात बदल जाए सवेरे में।
फिर चलती राह में उसे किसी ने सहारा दिया।
रुकी हुई ज़िन्दगी को, उसने एक इशारा दिया।
एक बार फिर उसे ज़िन्दगी में खुशी मिल रही थी।
खूबसूरत चेहरे में उसके एक खुशी खिल रही थी।
बहुत यक़ीन था उसे, इस बार अपने प्यार पर।
लेकिन उसने भी चोट की, उसके एतबार पर।
अब लोग भी लड़की को बदनाम करने लगे थे।
कई पीठ पीछे, तो कई सरेआम करने लगे थे।
वो शारीरिक, मानसिक बहुत कमजोर हो गई ।
बदनाम लड़की बेचारी, अब चारों ओर हो गई ।
बस अब वह सिर्फ, खुदा पर यक़ीन करती थी।
समाज, लोगों के तानों से, बहुत वो डरती थी।
जिसके बाद वह बहुत गुमशुम सी रहने लगी।
बेजान इमारत की तरह धीरे धीरे ढहने लगी।
लेकिन-
अच्छा होता अगर वह खुद पर एतबार करती।
अच्छा होता अगर वह सिर्फ खुद से प्यार करती।
अच्छा होता वह इस समाज की परवाह न करती।
अच्छा होता वह इस बेजान बदनामी से न डरती।
अच्छा होता वह अपने बच्चों को ताकत समझती।
बच्चों को ख़्वाब , बच्चों को ही इबादत समझती।
अच्छा होता अगर लोगों को खुलकर जवाब देती।
या फिर इस समाज से, दुखों का हिसाब लेती।
ज़िन्दगी है, इसमें उतार चढ़ाव तो आते रहते हैं।
जैसी लोगों की सोच, वह तुमको बताते रहते हैं।
करो सभी अपनी मर्जी से, दुनिया से क्या डरना।
ज़िन्दगी एक बार मिलती है, तो घुटकर क्यों मरना।
कहो लोगों से मुझे जो अच्छा लगेगा वही करूंगी।
मैं जब मौत से नहीं डरी, तुमसे क्या खाक डरूँगी।
संदीप कुमार