देशख़ास

स्वतत्रता संग्राम सेनानी दम्पति, सीता देवी और प्रिंसिपल छबीलदास

वे मूक मानवतावादी थी। पंजाब में जब चारों ओर सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे लगभग उसी समय लाहौर भी सांप्रदायिक आग में झुलस रहा थाहर जगह सांप्रदायिकता की चिनगारियाॅ धधकती नजर आ रही थी। ऐसे समय वे पीडितों की मदद के लिये जुट गई। वे उस समय लाहोर एसेम्बली की सदस्य थी। कभी वे सेना के ट्रकों में तो कभी अन्य साधनों से पीडितो की सहायता करती रहीं। जब द्वेषता, कटुता और सांप्रदायिक आग थमने का नाम ही नहीं ले रही थी तब उनके परिवार ने लाहौर छोडने का निर्णय लिया लेकिन सीताबाई ने इंकार कर दिया ।

स्वतत्रता संग्राम सेनानी दम्पति, सीता देवी और प्रिंसिपल छबीलदास

देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में हजारों की तादाद में लोगों ने अपना सहयोग दिया।इनमें से कुछ तो गुमनामी के शिकार हो गये या वे पर्याप्तरुप से उल्लेखित नहीं हुये, जबकि सेंकडों की तादाद में क्रांतिकारी स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास के पृष्ठाों में स्थान नहीं पा सके। ऐसे ही दो क्रांतिकारी दम्पत्ति थे सीताबाई औेर पिं्रसिपल छबीलदास। यद्यपि श्रीमती सीताबाई स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति करने लगी बाद में क्राॅग्रेस ने उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाया। इन दोनों क्रांतिकारियों की स्वतंत्रता आन्दोलन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही।

सीताबाई न केवल अत्यन्त निडर क्रांतिकारी महिला थी अपितु बहुमुखी व्यक्तित्व और प्रतिभा की धनी थीं। वे अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों के साथ- साथ स्वतंत्रता आन्दोलन को अपना पूरा समय देती थी। वे अपने आदर्शों के प्रति पूर्ण सर्मपित थी। 9 आगस्त 1942 को उन्हें गिरफतार किया गया जहाॅ वे अपना पूरा समय आगें की भूमिका तैयार करने में व्यतीत करती थी। कुछ दिनों के बाद उनकी बडी पुत्री विजय को ब्रिटिश विरोधी प्रदर्शन करने के कारण गिराफतार कर उसी जेल में रखा गया।तीस लडकियों के उस समूह में विजय सबसे छोटी थीं। बाकी लडकियों के माता पिता पर तो दबाव डालकर माफी मॅगवाकर उन्हें छोड दिया गया, लेकिन सीतादेवी पर कोई दबाव काम नहीं आया अैोर उन्होनें माफी माॅगने से स्पस्ट इंकार कर दिया।

दूसरी ओर सीतादेवी के पति प्रिसिपल छबीलदास ने जो स्वॅय जेल में थे उन्होने अपनी पुत्री को माफी न माॅगने की हिदायत भ्ेाजींे । परिणामतः विजय को जेल में ही रहना पडा। चूॅकि सीतादेवी राजनीतिक बंदी थी इसलिये उन्हें जेल में राशन मिलता था। उन्हें अपने ओर अन्य केदियों के लिये खाना बनाना पडता था। उनसें जेल की कई महिला बंदियोंृ ने अनुरोध किया कि, वे अपने हाथ का बना खाना भी बना दिया करे ताकि, वे किसी भी तरह आपकी पुत्री को खाना पहुॅचा देगीं।े लेकिन सीताबाई ने जेल के नियम को तोडने से इंकार कर दिया।

वे मूक मानवतावादी थी। पंजाब में जब चारों ओर सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे लगभग उसी समय लाहौर भी सांप्रदायिक आग में झुलस रहा थाहर जगह सांप्रदायिकता की चिनगारियाॅ धधकती नजर आ रही थी। ऐसे समय वे पीडितों की मदद के लिये जुट गई। वे उस समय लाहोर एसेम्बली की सदस्य थी। कभी वे सेना के ट्रकों में तो कभी अन्य साधनों से पीडितो की सहायता करती रहीं। जब द्वेषता, कटुता और सांप्रदायिक आग थमने का नाम ही नहीं ले रही थी तब उनके परिवार ने लाहौर छोडने का निर्णय लिया लेकिन सीताबाई ने इंकार कर दिया । वे वहाॅ रहकर ही पीडितों की सहायता करना चाहती थी। आखिर उनकी जिद के आगे परिवार के सदस्यों ने लाहौर छोडनें का निर्णय ले लिया लेकिन सीताबाई लाहोर में ही रही। और निर्बाध रुप से पीडितों की सतत् सहायता करती रहीं। चार माह के बाद स्थिति सामान्य होने के बाद ही उन्होंने लाहौर छोडा।

सीतादेवी के पति छबीलदास प्रिंसीपल छबीलदास के रुप से विख्यात थे। वे अत्यन्त निर्भिक क्रांतिकारी थे। स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान लाहौर में नेशनल काॅलेज की स्थापना हुई थी जिसमें छबीलदास अंग्रेजी पढाते थे। नेशनल काॅलेज में अनेक काॅ्रतिकारी युवक भी अध्ययन करते थे और स्वतंत्रता आन्दोनल के प्रति पूर्णतः समर्पित थे। इनमें भगतसिंह, सुखदेव आदि प्रमुख थे। भगतसिंह छबीलदास के प्रिय शिष्य थे। छबीलदास, लाला लाजपतराय द्वारा स्थापित सर्वेन्टस् आॅफ दी पीपुल्स सोसायटी के सदस्य बन गये और लाला लाजपत राय के अनुरोध पर उर्दु दैनिक वंदेमातरम् का संपादन भी कर रहे थे। उन्हें नेशनल काॅलेज का प्रिसिपल बना दिया गया और वे प्रिसिपल छबील दास के नाम से कहलाये जाने लगे। उन्हंोने भगतसिंह और उनके साथियों साथ मिलकर ‘‘ नौजवान भारत सभा’’ की स्थापना की। उन्होने देशवासियषें विशेषकर नौजवानों को प्रेरित करने के उद्धेश्य से ‘चिगरियाॅ’,‘इंकलाबी शरारे’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’,‘हम स्वराज क्यों चाहते है’ ओर ‘‘शोशलिस्ट’ जैसी पुस्तके लिखीं जिसका भारतीय जन मानस पर बहुत गहरा असर हुआ। उनकी लेखनी की धार ने लोगों को स्वतंत्रता आन्देालन के लिये प्रेरित किया।

प्रिंसीपल छबीलदास की कलम क्रंतिकारी थी।वह उर्दु दैनिक वंदेमातरम् के संपादक के तौर पर जो संपादकीय ओर लेख लिखा करते थे ्िरब्रटिश सरकार उन्हें बहुत ही खतरनाक ओर आपत्तिजनक मानती थी। पुलिस के रिकार्ड में उनके नाम के आगे लिखा गया था कि, ‘छबीलदास इज दी मोस्ट क्लेवर ं एंड डेन्जरस रिवोल्यूशनरी प्रोपेगेंडिस्ट है।’ उन्हें वंदेमातरम् का संपादन सौपने से पहिले लाला लाजपतराय ने उनसे पूछा कि वे किस पत्र का संपसदन करना पसंद करेगें। अंग्रेजी के ‘ पीपुल्स’ का ेया वंदेमातरम् का। छबीलदास ने वंदेमातरम् का संपादन करना स्वीकार किया क्योंकि, हिन्दी में वे बहुत बडे वर्ग के सामने अपनी बात रख सकते थे। उन्होनंे यही किया भी। पत्र के माध्यम से उन्होने जनजाग्रति पैदा की।

प्रिसिपल छबीलदास का नाम नेशलन काॅलेज ओर भगत सिंह के साथ इस प्रकार जुड गया था कि, लोग उन्हें भगतसिंह के गुरु के रुप में जानते थे। भगतहसं िके साथ अपने संबंधों के बारे में बताते थे कि, उन्हें खुद समझ नहीं आता कि, वे भगतसिंह के साथ अपने संबंधों की किस प्रकार व्याख्या करें। यद्यपि वो उनका प्रिय छात्र था लेकिन उपका मित्र था, सहयोगी था या पथ प्रदर्शक । भगतसिह के बारे मे बात करने पर वे बहुत भावुक हो जाते थे।ं भगतसिंह को जब फाॅसी दी गई थी प्र्रिसिपल छबीलदास उस समय जेल में ही थे।

यहाॅ पाठकों को यह जानकारी देना भी आवश्यक समझता हूूॅ कि, यह क्रांतिकारी दम्पति , सुप्रसिद्ध लेखिका ओर सामाजिक कार्यकर्ता मनोरमा दीवान के माता पिता थे। मनोरमा दीवान हिन्दी,उर्दू, अ्रग्रेज और पंजाबी पत्रकारिता में सुपरिचित हस्ताक्षर है। वे छ वर्षेां तक भारतीय प्रेस परिषद की सदस्य रह चुकी है।

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