‘काश’ बनाम ‘आ-काश”
काश मेरी कोई बहन ही होती !
साथ में हँसती, साथ में रोती ।
काश मेरा कोई भाई होता !
राज़दार चाहे बड़ा या छोटा ।
काश मेरे भी रिश्ते होते !
मेरे साथ फ़िर फ़रिश्ते होते ।
काश मेरे भी दोस्त होते !
आपस में रोज़ न्योते होते ।
काश मेरा कोई मामा होता !
रौनक ढोल हंगामा होता ।
काश मेरा कोई हमदर्द होता !
मेरे लिए जो पलकें भिगोता ।
काश कोई तो अपना होता !
मुझको पाता मुझको खोता ।
काश ख़ून के रिश्ते होते !
शक के फ़िर ना कोने होते ।
काश किसी के दिल में बसता !
फ़िर ना मैं यूं ऐसे तरसता ।
काश ना मैं यूं तन्हा होता !
मेरा यार भी कान्हा होता ।
काश मैं जन्म से निर्भय होता !
राजनीति चक्रव्यूह में ना फंसता ।
काश ना किसी की परवाह होती !
फ़िर ये ज़िन्दगी कुछ और ही होती ।
काश ना मुझमें दिल विल होता !
फ़िर क्या फरक कोई जीता मरता ।
काश ना इतने अरमां होते !
फ़िर इतना हम भार ना ढोते ।
काश कोई तो थोड़ा समझता !
हक़ से प्यार, हक़ से झगड़ता ।
काश असल में बड़ा कोई होता !
जिसमें बड़प्पन विचारों से होता ।
काश नींव में दमख़म होता !
गलतफहमियों का जाल ना होता ।
काश कि मुझको दुआ कोई देता !
दर्द का नामोनिशां ना होता ।
काश दिलों में स्वार्थ ना होता !
फ़िर शिकवों का अर्थ ना होता ।
काश कि मैं ना बेबस होता !
मेल-झोल गर बेहतर होता ।
काश कि ना अनदेखा होता !
अपनापन जो सच में होता ।
काश कि रिश्ते निभाए जाते !
साथ ही सुख-दुख में बतियाते ।
काश आपस में घनिष्टता होती !
ना छींटा-कशी ना निंदा होता ।
काश बहकावे में ना कोई आता !
दीमक तब ना यूं लग पाता ।
समझदारी कुछ दिखाई होती,
फ़िर ना नदियां बहाईं होतीं ।
बाहर मिला कोई ज्ञानी होता,
आज कुछ और ही कहानी होती ।
रिश्ते बेल जैसे बढ़ जाते,
घर बाहर का मेल बिठाते ।
काश थोड़ी उम्मीद ही होती !
आस से बड़ी नहीं कोई ज्योति ।
काश मेरा भी दायरा होता !
फ़िर मस्ती होती, मुशायरा होता ।
काश दृष्टिकोण खुल्ला होता,
कलह भी होती, और समझौता ।
काश मैं यूं कमज़ोर ना होता !
फ़र्क नहीं, कोई होता, ना होता ।
काश का ये सिलसिला ना होता !
रत्ती भर गर गिला ना होता ।
काश मग़र ये हो ना पाया,
जीवन दूरी में हो गया ज़ाया ।
काश रिश्तों में थोड़ी नमी सी होती,
फ़िर महसूस इतनी कमी ना होती ।