स्वामी विवकानंद, धर्म औेर दर्शन की पुण्य भूमि भारत के वेदान्त, और आध्यात्म के प्रभावशाली गुरु थे।
1893 में उन्होने शिकागो में विविध धर्म महासभा में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया और अपने गरिमामय, और ओजस्वी उद्बोधन से भारत के आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन को न केवल अमेरिका बल्कि पूरे यूरोप में पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया और सम्मेलन को सार्वभोम पहचान दिलाई।
गुरुवर रवीन्द्र नाथ टेगोर ने उनके बारे में कहा था कि, यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो आप स्वामी विवेकानंद को पढिये। उनमें आप केवल सकारात्मकता ही पायेगें, नकारात्मकता कुछ भी नहीं।
वे केवल संत ही नही अपितु एक महान देश्भक्त ,प्रखर वक्ता, विचारक, लेखक तथा मानव प्रेमी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होने उन्होंने देशवासियों से आव्हान किया कि नया भारत निकल पड़े, मोची की दुकान से, भडभूजे की भाड से, कारखाने, हाट बाजार, झाडियों, जंगलो, नदियों ओर पहाड से। जनता ने स्वामी जी पुकार का सकारात्मक उत्तर दिया ओर गर्व के साथ निकल पडी। गाँधी जी के आन्दोलन का जन समर्थन इसी आव्हान का फल था। स्वामीजी ही इसके प्रेरणा स्त्रोत थे।
उन्होने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया। वे पुरोहित वाद,धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रुढियों के सख्त खिलाफ थे। उनका विचार था कि, यदि धरती की गोद में एसा कोई देश है जिसने मनुष्य की बेहतरी के लिये ईमानदार प्रयास किया है तो वो भारत देश है।
उनका कहना था कि, उठो और जागो, तब तक रुको नहीं जब तक कि, मंजिल न मिल जाये। जो सत्य है उसे साहसपूर्वक लोगों के सामने कहो। दुर्बलता को कभी भी प्रश्रय मत दो।
स्वामी जी के विचारों का उद्गम संगीत शास्त्र, गुरु औेर मातृभूमि की स्वर लहरियों से होता था। उनका कहना था कि, मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन का काव्य है। ज्ञान स्वमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है। हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
स्वामी जी,प्राज्ञ, मयज्ञ,नम्य,अभिवंदनीय, आध्यात्मिक चितंक, विचारक ओैर प्रखर वक्ता तथा वाकपटु थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण अमेरिकी मीडिया ने उन्हें ‘‘ साईक्लोनिक हिन्दू’ कहा था।