मैं एक हिन्दू हूँ,
मैं एक हिन्दू हूँ,
रावी हूँ और सिंधू हूँ,
महत्वपूर्ण एक बिन्दु हूँ,
दे चांदनी, वो इंदु हूँ ।
ना बिल्कुल मैं हूँ भयभीत,
ना ही हूँ असुरक्षित,
मेरा धर्म मेरी जीत,
वो चाहे सबका हित ।
किसी पर कभी ना है थोपे,
किसी का रास्ता नहीं ये रोके,
है दर्पण ये, ना बिल्कुल धोखे,
आस्था के भरपूर हैं झोंके ।
कर्म के बल पर देखूँ इंसां,
केवल धर्म पर ना रहे निगाह,
मंज़िल एक चाहे अलग है राह,
सबके लिए ही खुली हैं बांह ।
कुछ शख़्स मगर ओढ़ें कई भेस,
मेरी भवनाओं को पहुंचाते ठेस,
कहने को सांप्रदायिक ये देश,
धर्म के नाम पर दंगे क्लेश ।
मेरे समाज को वे करते आहत,
उपहास तंज हुई रोज़ की आदत,
व्यंग्य खिल्ली से करें आघात,
चीरें दिल मेरा वे बार बार ।
देवी देवताओं पर लगें ठहाके,
भद्दे शब्द जब जाएं निकाले,
रोता हूँ मैं भरकर आहें,
भारी दिल, भरती धाराएँ ।
कारण इसका समझ ना आता,
क्या मिले शांति या कोई फ़ायदा ?
अपने लिए बस क़ानून कायदा,
मेरे वास्ते ओझल है हया ।
ऐसा बोल वे क्या जतलाते ?
हरदम बस हैं मख़ौल उड़ाते ,
क्या बुद्धिजीवी बनना चाहते ?
इनके इरादे समझ ना आते ।
मेरे धर्म को झूठा बताते,
जन जन को हैं ये भड़काते,
नीच बोल नीचता हैं दिखाते,
संस्कार सामने ख़ुद आ जाते ।
पवित्र विश्वास चाहें करना ख़त्म,
कितने ना जाने करें ये जतन,
अपनी ख़ुद ही खोदें क़ब्र,
कितने भयभीत, कितना डर !
अपनी मान्यताओं को दिखाते ऊंचा,
दूजे को करते हैं नींचा,
क्या क्या ना षड्यंत्र है सूझा !
धर्म परिवर्तन क्या है मंशा ?
सनातन विचार रहे हैं जो कुचल,
कर रहे बंजर हैं ये नस्ल,
इन दुर्जनों के सिर हैं दस,
मक्कारी गई इनमें बस ।
ऋषि मुनियों का करें अपमान,
इंसां ना, ये हैं हैवान,
ख़ुद का हर पल ही गुणगान,
क्या रखा इन्होंने दिल में ठान ?
मानसिक उत्पीड़न रहता सहता,
दरिया ज़ख्म से रहता बहता,
ईंटों से भला कौन है कहता !
किसे परवाह देश चले या ढहता !
ओर किसी धर्म की जो आती बात,
लगे ताला, बन्द होए ज़ुबान,
ना कर सकते, ना करें सम्मान,
बेवजह मगर ना करें अपमान ।
मेरा धर्म ने ना करी मनमानी,
ना ऐतराज़, ना गुमराह, और ना हानि,
इसकी सदैव मीठी वाणी,
ये परिपक्व और ठहरा ज्ञानी ।
गीता का बचपन से पाठ करा,
रामायण देख मैं बड़ा हुआ,
आस्तिक बन परमात्मा छुआ,
पानी से भरपूर कुआँ ।
हिंदुओं का ना रहा इतिहास,
ना किया ज़ुल्म, ना अत्याचार,
शांतिप्रिय, ख़ुद से ना प्रहार,
सदाचार का रहा व्यवहार ।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के बलबूते,
कितनी सब ये घिनोना कहते,
धर्म के नाम पर हिन्द ये बांटें,
उल्टा चोर कोतवाल को डांटें !
ये जैसे आस्तीन के साँप,
अपना दामन ना सके हैं झांक,
छाती पर मूंग दलें बेबाक़,
देश के आँचल पे डाले दाग़ ।
धर्मनिर्पेक्षता का बस ढोंग चला,
दीमक बन देश को किया खोखला,
सूरज देख अनौचित्य, बेमन ढला,
धरा हुई नम, दिल सा दहला ।
देके ये निष्ठा को गाली,
बटोर रहे कितनों से ताली !
जिसमें खाएं, वही छेददें थाली,
हद ने भी सरहद है लाँघी ।
कहां दब गया इनका ज़मीर ?
नोटों की ख़ातिर देश रहे चीर,
वजूद है गुमसुम, धुंधली तसवीर,
कहें नवाब, वास्तव में फ़क़ीर ।
उल्टा मुझे ये बोलें असहिष्णु,
मुझे पता, मैं हूँ शिव विष्णु,
हूँ पूरक, मैं हुँ चन्द्रबिंदू,
गर्व से कहूँ, मैं हूँ एक हिन्दू…
गर्व से कहूँ, मैं हूँ एक हिन्दू…
आपके अहसास को दी आवाज़..
आशावादी प्रयास – अभिनव ✍🏻